७.चलो अपन-तुपन खेलें...
जून की तेज गरमी थी । सूरज आसमान में अपनी पूरी चौबीस कलाओं से चमक रहा था। हवा शांत थी, पेड़ों के पत्ते तक नहीं हिल रहे थे। कुत्ते नालियों में, पानी के नलों के नीचे, कुओं की नालियों में, घरों की देहरियों के नीचे लेटे-बैठे हुए जीभ निकाल कर हांफते-हांफते ठंडक प्राप्त करने का प्रयास कर रहे थे। तीन मंजिला मकान में रहने वाले लगभग सभी लोग नीचे की मंजिल के अपेक्षाकृत ठन्डे या कम गरम स्थान आराम फरमा रहे थे। ऐसे में बस बच्चों की एक टोली चुपचाप से खेलने के लिए ऊपर वाले जीने की सबसे ऊपर की चौरस सीड़ी पर एकत्र हुई। सभी लगभग ६ से १० वर्ष तक के बच्चे थे।
‘चलो "छुपा-छुपी" खेलते हैं।‘ जगदीश, जो मकान मालिक का बेटा था, बोला ।
‘पर उसमें बहुत शोर होगा और बड़े लोग जागकर डांटने लगेंगे।‘ कुसुम ने कहा ।
‘तो "मगर की धारा" खेलते हैं ।‘ माया ने सुझाव दिया ।
‘उसके लिए छत पर जाना पडेगा, और इतनी तपती छत पर कौन जायगा ?’ सुन्दर ने कहा ।
‘चलो 'मम्मी-पापा' खेलते हैं।‘ सरोज ने जैसे घोषणा कर दी ।
‘वो क्या होता है ?’ सुन्दर को विचित्र सा लगा तो उसने पूछ लिया ।
‘मैं मम्मी हूँ, तुम पापा हो और बाकी सब बच्चे हैं । अब तुम सीडियों के नीचे जाओ और जब मैं इशारा करूँ तब आना ।‘ सरोज ने सुन्दर से कहा ।
ठीक है, कहकर सुन्दर नीचे चला गया और इंतज़ार करने लगा ।‘ चलो बच्चो सब सो जाओ नहीं तो पापा आयेंगे तो नाराज़ होंगें ।‘ सब बच्चे लेट गए तो सरोज ने सुन्दर को इशारा किया । सुन्दर धड़धडाता हुआ ऊपर आकर सरोज के सामने खडा होगया । वह सुन्दर की एक बांह व कमीज के ऊपर वाले बटन को पकड़ कर बोली...
‘तुम इतनी देर से क्यों आये ?’
देर ! सुन्दर बोला, ‘तुम्हारा इशारा होते ही तो मैं तुरंत आगया। ‘
उफ़ ! वह बात नहीं । मैं तो मम्मी की तरह पापा से कह रही थी जब पापा रात को देर से आते हैं । सुन्दर कुछ न समझते हुए चुपचाप खडा रहा । सरोज ने सुन्दर की और अपना मुंह बढाते हुए होठों से उसके गाल पर छुआ ।
सुन्दर ने घबराकर उसे धक्का देदिया । सरोज लड़खड़ा कर पास ही लेटे हुए जगदीश के ऊपर गिरी। जगदीश चीखते हुए उठा और गुस्से में सरोज की पीठ पर एक घूँसा जड़ दिया ।
‘
तुम उसे क्यों पीट रहे हो ?’ माया ने भौहें चढाते हुए पूछा ।
‘इसने मुझे क्यों टक्कर मारी ?’ जगदीश बोला।
‘
सुन्दर ने मुझे धक्का दिया था ।‘ सरोज बोली ।
‘
तुम मुझे गाल पर काटने की कोशिश क्यों कर रही थीं ।‘ सुन्दर ने प्रतिवाद किया ।
‘वेवकूफ ! चलो भागो यहाँ से, हम तो मम्मी-पापा खेल रहे थे ।‘
सुन्दर गुस्से से लाल-पीला होते हुए सरोज की और बढ़ा और गाल पर एक चांटा जड़ दिया फिर तेजी से भाग खडा हुआ।
शाम को नीचे आँगन में महिलाओं की पंचायत छिड़ी हुई थी । सरोज ने अपनी माँ से शिकायत कर दी जो सुन्दर की माँ तक पहुँची, उसने सुन्दर का पक्ष लिया और वाक्-युद्ध प्रारम्भ होगया जो देर तक एक दूसरे की सात पीढ़ियों तक के गुणगान के बाद बिना किसी निष्कर्ष व परिणाम के दो घंटे बाद समाप्त हुआ।
अगले दिन जब सुन्दर और जगदीश कंचे खेल रहे थे तो सरोज दौड़ती हुई आयी बोली,' सुन्दर, चलो अपन-तुपन खेलते हैं नीचे चलकर।‘ सुन्दर ने कंचे से निशाना लगाते हुए कहा,’ चलो भागो, मुझे नहीं खेलना तुम्हारे साथ ।‘
‘पर मैं नीचे जारहा हूँ ।‘ जगदीश बोला, वह कंचे हार रहा था अतः बहाना मिलते ही कंचे अपनी जेब में रखकर चलता बना ।
‘ तुमने अपनी माँ से शिकायत क्यों की ?’ सुन्दर ने पूछा ।
‘अब नहीं करूंगी’’’, सुन्दर की बांह पकड़कर खींचते हुए सरोज बोली,’अब भी नाराज़ हो ?’
नहीं, सुन्दर बोला |
दोनों एक दूसरे का हाथ पकडे साथ-साथ नीचे गली में आये | सभी ‘मगर की धारा’ खेल रहे थे | इसमें एक बच्चा जो मगर बनता है गली, जिसे नदी माना जाता है, के बीचो-बीच खडा होता है | अन्य सभी दोनों ओर के कुछ ऊंचे स्थानों पर खड़े होते हैं जिन्हें नदी के किनारे समझा जाता है | बच्चे नदी के आर-पार दौड़ते हैं और मगर उन्हें पकडने का प्रयत्न करता है| जो पकड़ में आजाता है उसे अगला मगर बनकर गली के बीच में खडा होना पडता है इस प्रकार क्रमश:खेल चलता रहता है |
एक बार जब सरोज नदी पार करने लगी तो सुन्दर ने उसे तट पर आने से तुरंत पहले छूलिया| परन्तु सरोज ने साफ़-साफ़ यह कहते हुए छुए जाने से मना कर दिया कि सुन्दर झूठ बोल रहा है | सुन्दर ने जब नाराज़ होकर उसे चले जाने को और खेलने से हट जाने को कहा तो सभी बच्चे सरोज का ही पक्ष लेकर सुन्दर को ही झूठा कह कर चिल्लाने लगे |
‘सब कुट्टी करदो इससे, कोई मत बोलो, सरोज ने सुझाव दिया| सभी ने अपनी तर्जनी उंगली होठों पर रखकर तीन बार कुट्टी..कुट्टी कुट्टी कहा सुन्दर को बाहर जाने को कहा| सुन्दर गली के बीचो-बीच खडा रहा |
‘तुम यहाँ से बाहर क्यों नहीं जाते’ जगदीश बोला |
‘क्यों मैं तो गली में खडा हूँ |’
‘भागो मैं कहता हूँ नहीं तो’ जगदीश चिल्लाया |
‘नहीं जाता, क्या तेरे बाप की गली है |’ सुन्दर बोला |
‘तो क्या तेरे बाप की है|’ जगदीश गुस्से में मुट्ठियाँ भींच कर सुन्दर की ओर बढ़ा| सुन्दर भी मुट्ठी भींच कर आगे बढ़ा फिर अचानक विरोधी दल की बहुमत-शक्ति देखकर उसने अपना इरादा बदल दिया और हट गया ।
शाम को जब सुन्दर की माँ छत पर खुली रसोई में सुन्दर का प्रिय व्यंजन ‘आलू का परांठा’ बना रही थी क्योंकि अंदर गरमी थी और घरों में पंखे नहीं थे | सुन्दर परांठे को यूँही लपेट कर बिना सब्जी के खारहा था और माँ उसे थाली में रखकर अच्छे बच्चों की तरह सब्जी से खाने को कह रही थी, सरोज हांफते हुए दौड़ कर आई, बोली, ‘चलो सुन्दर अपन-तुपन खेलेंगे|’
‘चलो जाओ उन्हीं के साथ खेलो’, सुन्दर तेजी से बोला, ‘तुमने कुट्टी क्यों की,जाओ मैं तुमसे नहीं बोलता,तुम बड़ी खराब हो |’
सरोज आँखों में आंसू भर कर चुपचाप खड़ी रही |
‘क्या बात है सरू ?’ सुन्दर की माँ पूछने लगी, ’अरे तुम रो क्यों रही हो ?’ माँ ने कहा |
‘ये मेरे साथ खेलने नहीं जा रहा है |’
‘इसने मुझसे कुट्टी क्यों की|’ सुन्दर बोला |
बुरी बात है,सुन्दर की माँ हंसकर बोली,एक दूसरे से मत लड़ा करो,अच्छे बच्चे ऐसा नहीं करते|
देखा, शांती!‘सुन्दर की माँ अपनी समीप बैठी पड़ोसन से कहने लगी; जो लगभग पंद्रहवीं बार अपने सबसे छोटे बच्चे, जिसने अभी-अभी चलना व बोलना सीखा था, के लडखडाकर चलने, तुतला कर बोलने जैसे कृत्यों का हर्षपूर्ण वर्णन कर रही थी जो उसकी सातवीं संतान थी;कैसे सुनहरी की बहू कल लड़ रही थी बिना मतलब के |अरे ये बच्चे कभी आपस में एक दूसरे के साथ खेलने से रह सकते हैं| बच्चों की तरफदारी लेकर बड़ों का लडना-झगडना बेमानी है |’
‘सरू,लो इसे खाओ और दोस्त बन जाओ|’सुन्दर की माँ सरोज को आलू का परांठा देती हुई बोली |सरोज ने अपनी फ्राक की बांह से आंसुओं को पौंछा और सुन्दर को जीभ दिखाती हुई परांठा खाने लगी
‘चलो अब पुच्ची करो और दोस्ती करलो’, सुन्दर की माँ बोली |
दोनों ने अपने-अपने दायें हाथ की हथेली को चूमते हुए दो बार पुच्ची-पुच्ची कहा और एक दूसरे की गर्दन में बाहें डाले खेलने चल दिए |
८.जो प्रभु चौंच बनाता है...
डॉ.
गुप्ता
जब
घूमते
हुए डॉ.खरबंदा
के
क्लिनिक
पर
पहुंचे
तो
वे
समाचार-पत्र
पढ़
रहे
थे
जिसमें
राजनैतिक
दलाली,
कमीशनखोरी
व
रिश्वत
आदि
के
ताजा
समाचार
थे
| डॉ.
वर्मा
भी
वहीं
बैठे
हुए
थे|
डॉ
गुप्ता
की
पोस्टिंग
पंजाब
में
थी
तथा
वे
नगर
के
रेलवे-चिकित्सालय
के
इंचार्ज
थे;अकेले
ही
थे
अतः
प्रायः
डॉ. खरबंदा
के
क्लिनिक
पर
चले
जाया
करते
थे,गप-शप
करने|
डॉ. खरबंदा
डेंटिस्ट
थे
और
मस्त-मौला
किस्म
के
खुशमिजाज़
इंसान|
उनकी
प्राइवेट
क्लिनिक
थी
और
रेलवे
अस्पताल
में
अटैच
भी
थे|
डॉ. वर्मा नगर
के
जिला
अस्पताल
में
फिजीसियन थे,
वे
भी
डॉ. खरबंदा
के
मित्रों
में
थे।
‘लोग
अकसर
मजबूरी
में
ही
रिश्वत
लेते
होंगे
डॉ. गुप्ता!’
डॉ.
खरबंदा
ने
अपना
मत
व्यक्त
करते
हुए
पूछा
| वे
युवा
थे,जोश
व
आदर्श
से
भरपूर
और
नये
नए
ही
व्यवसाय
एवं
सामाजिक
जीवन
में
आये
थे
और
स्वयं
की
क्लिनिक
थी
अतः
विभिन्न
सरकारी सेवाओं
आदि
के
क्षेत्र
में
उपस्थित
रिश्वत,भ्रष्टाचार
आदि
के
बारे
में
अभी
अधिक
अनुभव
व
ज्ञान
नहीं
था|
‘हो
सकता
है|‘
डॉ.
गुप्ता
ने
कहा‘,
पर
एसी
भी
क्या
मजबूरी
जो
रिश्वत
लेनी
पड
जाय|
लालच
व
लोभ
ही
मेरे
विचार
से
इसका
कारण
बनता
है|’
‘इसे
हम
इस
प्रकार
लें’,
डा
खरबंदा
कहने
लगे,
’अगर
मुझे
पैसों
की
सख्त
जरूरत
है
और
कोई
अन्य
ज़रिया
नहीं
है, कहीं
से
भी
| क्या
करना
चाहिए
इस
स्थिति
में?
मुझे
मौके
का
फ़ायदा
उठा
लेना
चाहिए
या
नहीं
|’
‘ये निर्भर करता है वस्तुस्थिति पर कि ऐसी क्या अत्यावश्यकता है और वह आवश्यकता क्यों है? वह स्थिति क्यों उत्पन्न हुई? इसी पर सारा क्रिया-व्यवहार निश्चि त होना चाहिए | क्योंकि आपके पासआपकी आवश्यकतानुसार पैसे नहीं हैं यह आपका स्वयं का दोष है जो या तो आपके अनुचित कर्मों के कारण होगा या आपकी अकर्मण्यता एवं जीवन व्यबहार की गलत व्यवस्था के कारण|’डॉ. गुप्ता ने कहा|
‘और
सही
जीवन
व्यवहार-व्यवस्था
क्या
है,आपके
अनुसार?’
डा
खरबंदा
पूछने
लगे|
जैसा
कि
ईशोपनिषद
का
कथन
है
–
“ विध्यान्चाविद्या
यस्तत
वेदोभय
सह
|
अविद्यया
मृत्युं
तीर्त्वा
विद्यया
अमृतंनुश्ते||”
अर्थात
व्यक्ति
को
संसार
व
ज्ञान
दोनों
को
समान
भाव
से
जानना,मानना
व
पालन
करना चाहिए|
सांसारिक
ज्ञान-व्यवहार(उचित
यथानुरूप
कठिन
परिश्रम)
से
वह
आवश्यकतानुसार
धन,सिद्धि
आदि
प्राप्त
करे
एवं
परमात्म
ज्ञान-भाव
से
आनंद
प्राप्त
करे|अतः
जीवन
को
गौरवपूर्ण
ढंग
से
जीना
चाहिए|यही
जीवन
है|
‘तो
क्या
करना
चाहिए
उस
स्थिति
में
जो डॉ.खरबंदा
ने
वर्णित
की
है?’डॉ.वर्मा
उत्सुकता
से
पूछने
लगे|
‘दो
रास्ते
हैं
‘डॉ.
गुप्ता
कहने
लगे,‘प्रथम
-या
तो
आप
गौरवपूर्ण
ढंग
से
जियें
और
कथन
है
कि
कर्तव्य
में
मृत्यु
भी
श्रेयस्कर
है
| अतः
एक
दम
साफ़-सुथरे
रहें|
यदि
पर्याप्त
धन
नहीं
है
तो
अपनी
आवश्यकताएं
घटाएं
या
समाप्त
करें
चाहे
जो
भी
अत्यंतता
हो|
यदि
खाना
नहीं
है,न
खाइए;भूख
से
कष्टों
से
यदि
मिले
तो
मृत्यु
का
भी
वरण
करिये|आपकी
आत्म
संतुष्टि
रहनी
चाहिए|
दूसरी
ओर-
जीवन
जीने
के
लिए
है
उसे
यूँही
त्यागने
का
आपको
अधिकार
नहीं
है
क्योंकि
यह
आपके
ऊपर
समाज
का
ऋण
है । मातृ-ऋण,
पितृ-ऋण
की
भांति|
जिस
परिवार,समाज,देश,राष्ट्र
ने
आपको
उम्र
के
इस
स्तर
तक
पहुँचने
में
सहायता
की
है
उसका
ऋण
तो
चुकाना
ही
होगा|
अतः
जीना
आवश्यक
है
और
उसके
लिये
खाना
आवश्यक
है
| अतः
यदि
धन
की
आत्यंतिक
आवश्यकता
जीवन-रक्षण
के
लिए
है
न
कि
सिर्फ
विलासिता
पूर्ण
जीवन
हेतु
झूठी,अप्राकृतिक,कृत्रिम;
तो
आप
मौके
का
लाभ
उठा
सकते
हैं
परन्तु
उसके
परिणाम,जो
कुछ
भी
हो
सकता
है,भुगतने
के
लिए
तैयार
रहें,स्वयं
अपनी
आत्म-धिक्कार
के
लिए
भी|’
‘एक
तीसरा
रास्ता
यह
भी
है’,डॉ.
वर्मा
ने
जोड़ा
कि
“सब
कुछ
ईश्वर
पर
छोडो
यारो
“.. वह
कहीं
से
भी
इंतजाम
करेगा
” जो
प्रभु
चौंच
बनाता
है
चुग्गा
वही
जुटाता
है”
|’
‘वाह!
क्या
बात
है’,डॉ.
वर्मा,
सही
कहा
’पर
हाँ,
हर
स्थिति
में
कष्ट
तो
आपको
ही
सहना
होगा
हर
रास्ते
पर
चाहे
जो
रास्ता
चुनें
आपकी
इच्छा|’
‘तो
आप
मौकापरस्ती
पर
विश्वास
करते
हैं
?’डॉ.
खरबंदा
ने
कहा
|
हाँ,बिलकुल,हम
सब
परिस्थिति
के
दास
हैं,हम
वही
बनते
हैं
जो
परिस्थिति
हमें
बनाती
है|
पर
यह
तो‘
पेसीमिस्टिक
यानी
‘निराशावादी
दृष्टिकोण’
है|’डॉ.
खरबंदा
असहमति-भाव
में
बोले, ‘हमारे
इसी
मौक़ापरस्ती
के
भावों,आदतों
व
दृष्टिकोण
के
कारण
ही
तो
दुनिया
नर्क
बन
रही
है
और
सुधार
का
कोई
उपाय
भी
नज़र
नहीं
आरहा
है|
लगता
है
कोई
अवतार
ही
यह
सब
कर
पायगा|’
‘सुधार!’
’अवतार’डॉ.
गुप्ता
ने
जोर
देते
हुए
कहा,’क्या
आप
समझते
हैं
कि
लोगों
को,देश
को,मानवता
को
सुधारना
या
बदलना
किसी
के
वश
में
है?‘
‘हाँ,
क्यों
नहीं,महान-आत्माएं,पैगम्बर
आदि
ही
यह
कर
पाते
हैं
व
करते
हैं,इसी
के
लिए
तो
वे
याद
किये
जाते
हैं|’
डॉ.खरबंदा
बोले
|
‘नहीं
दोस्त|’,
मैं
नहीं
समझता कि
कोई
भी
पैगम्बर,बडे
नेता,महात्मा,महान
लोग
इस
दुनिया
को
सुधारने
या
बदलने
में
कुछ
कर
पाते
हैं| निश्चय
ही
नहीं, यह
तो
प्रकृति
है
जो
स्वयं
सारा
परिवर्तन
करती
है|
जड
व
चेतन
सभी
एक
प्रकार
के
चक्रीय
जीवन
में
हैं,संसारचक्र
में
हैं
जिसमें
उत्थान-पतन
की
विविध
घटनाएँ
स्वयं
ही
सुनिश्चित
अवश्यम्भावी
तरीके
से
अपने
आप
होती
रहती
हैं|
परिवर्तन
व
सुधार
प्रकृति
का
नियम
है|
प्रकृति
को
स्वयं
ही
करने
दिया
जाय
| आप
तो
वह
करते
रहिये
जो
आप
कर्म-शुचिता
से
कर
सकते
हैं
| आप
जन
जन
को
नहीं
बदल
सकते
|’ डॉ.
गुप्ता
कहते
गए
|
यही
तो
डॉ.
वर्मा
के
तीसरे
रास्ते
का
अर्थ
निकलता
है,डॉ.
खरबंदा
बोले
|
बिलकुल,डॉ.
गुप्ता
पुनः
कहने
लगे,‘क्या
कृष्ण,
दूसरे
दुर्योधनों,कंसों
को
एवं
राम
अन्य
रावणों
को
पैदा
होने
से
रोक
पाए?
आज
घर-घर
में
समाज-देश
में
ये
सब
घूम
रहे
हैं, तभी
तो
उन्हें
गीता
में
कहना
पडता
है
..
‘यदा
यदा
हि
धर्मस्य
ग्लानिर्भवति
भारत’
धर्म
संस्थापनार्थाय
संभवामि
युगे
युगे
|’
क्या
अंग्रेजों
को
भगाने
के
बाद
गांधीजी
के
चाहते
हुए
भी
हम
अंग्रेजियत
को
भारत
में
पैर
जमाने
से
रोक
पाए
और
अब
उस
अप-संस्कृति
को
रोक
पा
रहे
हैं
?
‘और क्या आप ये कहानियां,कथाएं,कवितायें लिखकर,हिन्दी का झंडा उठाकर अंग्रेज़ी को रोक पायेंगे?’डॉ. वर्मा ठहाका मारकर बोले |
‘क्या
सच
कहा
है,क्या
बात
है
यार,कोई
नहीं
सुन
रहा,यही
तो
कृष्ण
कह
रहे
हैं
कि
यह
अन्याय-अधर्म,न्याय-धर्म
की
प्रक्रिया
चलती
रहेगी
और
वे
जन्म
लेते
रहेंगे
अर्थात
यह
प्रकृति
स्वयं
ही
चक्रीय
व्यवस्था
से
सब
कुछ
करती
है, यही
विष्णु
का
चक्र
है
”विष्णुर्चक्रमे
निधात“
संसार-चक्र
| जब
गांधारी
ने
महाभारत
के
अंत
में
कहा..’कृष्ण
तू
चाहता
तो
युद्ध
रोक
सकता
था”
तो
गोविन्द
ने
स्वयं
ही
कहा
था..‘’मां
मैं
कौन
होता
हूँ
प्रकृति
के,
नियति
के
क्रम
में
व्यवधान
करने
वाला
“
‘फिर
क्या
उपाय
है
? डॉ.
खरबंदा
बोले
|
कोई
उपाय
नहीं
| जब
मानव
के
कर्मों
व
मानवता
के
पाप
का
घडा
भर
जायगा
दुनिया
पूरी
तरह
से
पाप-पंक
में
डूब
जायगी;मानव
स्वयं
ही
अपने
पाप
कर्मों
से
ऊब
कर,
बोर
होकर
उनसे
विरत
होने
का
प्रयास
करेगा,लोग
स्वयं
ही
बुराई
से
तंग
आकर
अच्छाई
की
ओर
चलेंगे
और
मानवता
व
समाज
स्वयं
को
ऊपर
उठाने
का
प्रयास
करेगा|
क्योंकि
परिवर्तन
प्रकृति
का
अटल-नियम
है,पाप
का
घडा
पूरा
भरने
पर
अवश्य
ही
फूटता
है
|’डॉ.
गुप्ता
ने
कहा|
‘विचित्र
सा
तर्क
है’,
डॉ.
खरबंदा
आश्चर्य
प्रकट
करते
हुए
बोले,
‘कभी
नहीं
सुना
ऐसा
तो,
पर
हाँ
विचारणीय
तो
है|’
‘ परन्तु
वह
था
तो
सदा
से
ही
उपलब्ध,
समय
के
अंतर
में|’
डाक्टर
खरबंदा,‘कुछ
भी
जो
होता
है,
होना
होता
है,
हुआ
है
वह
सदैव
से
ही
उपस्थित
है;
न
कुछ
नया
है,
न
होता
है,
न
नया
बनता
है,
वह
सदा
उपस्थित
होता
है
| हम
गौरव
अनुभव
करते
हैं
कि
हमने
रेडियो
बनाया,
मशीनें
ईजाद
की
हैं
परन्तु
नहीं,
वे
तो
सदा
से
ही
मौजूद
थीं
समय
के
अंदर
उसके
अंतराल
में
| हम
सिर्फ
समय
को
अपनी
ओर
खींच
लेते
हैं,
बस
समय
को
खंगालकर
उसको
व
वस्तु
को
व्यवस्थित
कर
देते
हैं
‘मेनीपुलेट’
करके|’डॉ.
गुप्ता
ने
व्याख्यायित
किया
|
‘समय
ही
सब
कुछ
है|’
‘वही
क्रिया
है,कार्य
है,कृतित्व
है,दुनिया
है,जीवन
है,दर्शन
है,ईश्वर
है|
समय
आने
पर
सब
कुछ
बदल
जाता
है
और
होने
लगता
है,
घटने
लगता
है|
जीवन,
समय
के
अंदर
एक
यात्रा
है,
दौड़
है
कभी
तेजी
से,
कभी
धीरे-धीरे,
चक्रीय
व्यवस्था
है,
स्वतः
परिक्रमित
|’
‘तो
फिर
हम
नियम,सुधार,क़ानून
आदि
के
बार
में
क्यों
चिल्लाते
रहते
हैं?’डॉ.
वर्मा
पूछने
लगे|
‘आत्म
संतुष्टि
हेतु|
क्योंकि
जीवन
व
संसार
सुचारू
रूप
से
चलते
रहने
हेतु
यह
आवश्यक
है|
सभी
को
रहना
है,जीना
है,खाना
है
अतः
कुछ
न
कुछ
तो
लिखा-पढ़ा
जायगा,कथन,व्याख्यायें
तो
कहनी-करनी
ही
पढ़ेंगी
न|
यह
जीवन
धारा
है,जीवन-दृष्टिकोण;और
यह
सब
प्रकृति
का
कार्य
है
जो
प्रकृति
इन्हीं
लोगों
से,
महान
लोगों,पैगम्बर,अवतारों
द्वारा
कराती
है|’
‘तो
हम
वहीं
आगये
जहां
से
चले
थे|’
दोनों
मुस्कुरा
कर
कहने
बोले
|
‘हा...हा...हा...,
दुनिया
गोल
है|’डॉ.
गुप्ता
ने
ठहाका
लगाते
हुए
कहा
|
९. न गाँव न शहर …
“ये तो मुख्य शहर से बहुत दूर है, भाई साहब !’
’क्या तुम सोच सकते हो कितनी दूर है ?’
’इसका क्या अर्थ ?’ मैंने प्रश्न-वाचक निगाहों
से अपने बडे भाई से पूछा।
’यही कि बचपन में शहर से हम अपने जिस गांव तीन घन्टे में पहुंचते थे,अब सिर्फ़ ८ किमी दूर है।’
”क्या! अपना गांव इतना पास है।‘ मैंने आश्चर्य व उत्सुकता से पूछा।
‘हां, चलना है क्या?’ भाई साहब बोले।
’हां, हां अवश्य’|
हम लोग स्कूटर उठाकर अपने गांव चल दिये। चालीस वर्ष बाद मैं जा रहा था अपने गांव, जहां अपना कहने को कुछ भी नहीं था। बावन खम्भों वाली हवेली पहले ही हथियायी जा चुकी थी, अनधिकृत लोगों द्वारा, जमींदारी समाप्त होने के साथ ही ला. गिरिधारीलाल-बैजनाथ के परिवार के, गांव छोडकर दूर-दूर जा बसने के उपरान्त । जिसका मन होता अपना घर उस जमीन पर बसा लेता और सुना करते थे, खुदाई में मिले गढे हुए धन की
चर्चायें, जिस पर उसी का अधिकार होता
जो बसता जाता। शेष बची प्रापर्टी गिरधारीलाल जी के बडे पुत्र बेच-बाच कर शहर पलायन कर गये। सम्पत्ति का कोई बटवारा भी न होपाया था ।
14.
छोटे पुत्र जगन जी बाज़ार वाली दुकान को ही घर बनाकर रहने लगे। कठिनाई से मिडिल तक शिक्षा प्राप्त करके व अन्य दायित्वों का निर्वहन करके वे भी शहर में नौकरी करने लगे। जन्मभूमि व घर का मोह बडा गहरा होता है, अत: जब भी शहर से ऊब जाते हम सब को लेकर गांव में आकर रहने लगते। हम सब उसी दुकान को ही अपना घर समझते थे, और लगभग प्रत्येक वर्ष स्कूल की गर्मियों की छुट्टियों में गांव रहने चले आते। जब हम सब भी शिक्षा के एक स्तर के उपरान्त अन्य शहरों में रहने लगे तो गांव जाना लगभग छूट ही गया। क्योंकि कोई नियमित बटवारा नहीं हुआ था अत: उस तथाकथित दुकान-घर को भी गिरधारीलाल जी के बडे सुपुत्र के नालायक पुत्र द्वारा आधा अपना कहकर बेच दिया गया । अत: पिताजी को भी मजबूरी वश शेष आधा भाग बेचना पडा और गांव से नाता ही टूट गया।
पांच मिनट बाद ही वह प्याऊ आगयी जहां पहले सभी ठंडा –ठंडा पानी पीकर, हाथ मुंह धोकर थकान मिटा लेते थे। पानी अब भी ठंडा है पर लोग रुकते नहीं हैं। बगल में “ठन्डा” व मिनरल वाटर की बोतलें मिलने लगी हैं, छोटी छोटी चाय की दुकानों पर। रास्ते में बडॆ बडे ढाबे भी खुल गये हैं
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थोडी देर में ही बडी-नहर आगयी, जो दो तिहाई रास्ता पार कर
लेने की निशानी थी, और फ़िर गांव के प्रवेश द्वार पर स्थित छोटी नहर जिसके चारों ओर अमराइयां, नीबू, करोंदे, आडू, बेर, जामुन के बाग थे। लगभग प्रतिदिन ही अम्बियां, कैरी, कच्चे-आम बटोरने के लिये बच्चों व बडों की भीड लगी रहती थी । अब तो कोई घुसने भी नहीं देता । अमराइयां व बाग उज़डे-उज़डे से हैं, नहर चुपचाप से बहती सी दिखाई दे रही है। शायद अब बच्चों व स्त्रियों के झुंड रोज़ाना नहाने नहीं आते। किसी के पास समय ही कहां है अब ।
मुख्य बाज़ार की सडक अब पक्की बन गयी है, पर खडन्जे वाली; बिकास का यह आधा-अधूरा द्रश्य लगभग हर गांव में ही दिखाई देता है। मैं मूलचन्द हलवाई, जगन जलेबी वाला को ढूंढता हूं, वे कहीं नहीं है वहां। कई मन्ज़िलों वाली बिल्डिन्गें खडी हैं। हां मुख्य बाज़ार के मुहाने पर स्थित कुआं आज भी वहीं है, उस पर हेन्ड-पम्प लग गया है। कुए की जगत पर चारों ओर रस्सी से पानी खींचने पर घिसने के निशान अब भी हैं, जिनका ह्रदयस्थ अन्तर्द्रश्यान्कन मैं प्राय: कबीर के दोहे--“रसरी आवत जात ते सिल पर होत निसान“ पढते-सुनते हुए उदाहरण स्वरूप किया करता था। हां नये निशान नही हैं ।
मैं अपना घर ढूंढने लगता हूं, तो भाई साहब हंसने लगते हैं; फ़िर एक बहुमन्ज़िला भवन की ओर इशारा करते हुए कहते हैं..वह रहा ..। अब ये ला. मूलचन्द की हवेली है। आगे नीम के पेड व पीछे कब्रिस्तान, मस्ज़िद व बडे से इमली के पेड से मैं पहचानता हूं, कन्फ़र्म करता हूं, अपने घर को जहां न जाने कितने महत्वपूर्ण पल बिताये थे। वो नीम के पेड के नीचे खाट बिछाकर लेटना व कहानियां कहने–सुनने का दौर, दोपहर में सभी के चिल्लाते रहने पर भी गैंद-तडी, गिट्टी-फ़ोड का चलते रहना। पत्थर फ़ैंक कर इमली तोडना । रात में छत पर इमली के पेड व कब्रिस्तान के भूतों की कहानी सुनकर-सुनाकर एक दूसरे को डराना, पर चांदनी रात में वहीं देर तक खेलते रहना....। ‘ये हाट वाला कुआं है, गौशाला वाला....’.अचानक भाई साहब की आवाज़ से मेरी तन्द्रा टूटती है।
ओह ! हां, यह तो हाट बाज़ार है और वो चौराहे वाला मन्दिर....। जिसके चंद्रमा से होड करते शिखर-कलश गांव में सबसे ऊंचे होते थे, अब ऊंची बिल्डिन्गों से नीचे होगये है। मैं खोजाता हूं, सुबह-शाम मन्दिर के घन्टों की सुमधुर ध्वनि में, गौधूलि-बेला में गाय-भेंसों का गले की घन्टियां बजाते हुए, रम्भाते हुए, पैरों से धूल उडाते हुए लौटकर आना । दिन में बैलगाडियों का जाना, जिन पर लद कर बच्चों का दूर-दूर तक सैर कर आना। रविवार की पेंठ की हलचल, पतिया की जात की
स्मृतियाँ
...और....जाटिनी की छोरी व बनिया के छोरे की तू..तू...मैं ..मैं.... अचानक हंस पडने पर भाई साहब प्रश्न वाचक मुद्रा में पूछने लगे,.. .’.क्या हुआ?.’..
‘कुछ नहीं’, मैंने कहा.,....’एसे ही पुरानी बात याद आगई ।‘
अब यहां पुराना कुछ भी नहीं है । रघुबर के पेडे, लस्सी, कलाकन्द, जलेबी, मठरी के थाल के स्थान पर...चाय-ठन्डा, केक, चाकलेट, तरह तरह की नयी नयी रंग व मिलावटी खोये वाली मिठाइयां, लेमन.....और ये दुकान पर जगह-जगह लटके हुए सुपारी, गुटखा, पान-मसाला के पाउच दिख रहे हैं न ..भाई साहब ने बताया। कुओं मे हेन्ड पंप लग गये हैं।
वो गड्ढा व घूरा, छोटावाला मन्दिर व भुतहा कमरा कहां है। अचानक मैंने पूछा। वो घर के सामने वाले केम्पस में हैं न। वो घूरा तो कूडेदान बन चुका है, गड्ढा सूख चुका है, ठन्डे पानी की कुइया पत्तों व कूडे से भर कर पट चुकी है। भुतहा कमरा नया बन गया है, उसमें एक परिवार रहता है। मैं कुइया के सामने वाले घर को हसरत से देखता हूं....तभी भाई साहब की आवाज आती है...’.चलो अन्दर गांव में देखते हैं ।‘
मकान पक्के होते जारहे हैं, गलियां अब भी वही हैं, हां पक्की अवश्य होगयी हैं। पर वही आधी-अधूरी, नालियों के निकास व प्लानिन्ग के बिना; जो वस्तुत: आधे-अधूरे बिकास की ही गाथा हैं।
मैं भारी मन से लौट कर आया। चुप-चुप चलते देखकर भाई साहब ने पूछा...कैसा लगा? मैंने कहा , “वह अब न तो गांव ही रहा है, न शहर ही हो पाया है।“
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