मैं और श्रीकांत
२१.माँ
और
काजल
पुराण
...
पुस्तक
पढते,कम्प्युटर
पर
काम
करते,नोट्स
बनाते
जब
आँखों
में
भारीपन
व
धूल-धूल
सी
होने
लगी
तो
मैं
लेट
गया
और
उँगलियों
के
पोरों
से
दोनों
आँखों
को
हलके
हलके
दवाकर
आराम
देने
का
प्रयत्न
करने
लगा|
लेटे-लेटे
मैं
सोचने
लगा
क्या
कोई
आई-ड्रॉप
डाल
ली
जाय
या
लुब्रीकेंट
आटीर्फिसियल
टीयर्स-
ड्रोप्स|
तभी
बगल
के
कमरे
से
मेरा
मित्र
रमाकांत,जो
लखनऊ
आया
हुआ
था,आकर
कहने
लगा,
’यार!
बड़ा
धाँसू
उपन्यास
लिखा
है,
एक
सिटिंग
में
ही
पढ
गया,
उठा
ही
नहीं
गया
बीच
में|
मज़ा
आगया,
कालिज
का
ज़माना
याद
आगया|’
मुझे
लेटे
हुए
व
आँखें
मलते
देख
कर
पूछने
लगा,’क्या
हुआ?’
‘कुछ
नहीं,
बस
आँख
थक
गयी
तो
लेट
गया,
स्ट्रेन
से
हल्का-हल्का
भारीपन
है
यूंही’, मैंने
हथेली
से
पलकें
दबाते
हुए
कहा|
तुम
तो
यार,
काजल
लगवा
लेते
थे,इस
सिचुएशन
में
|’ रमाकांत
बोला,
फिर
ठहाका
मारकर
हँसने
लगा
तो
मैं
भी
मुस्कुराने
लगा|
मेरा
ध्यान
पत्नी
की
ओर
चला
जाता
है
जो
बेटे
के
पास
गयी
हुई
थी|
जब
कभी
ऐसा
होता
है
तो
मैं
श्रीमती
जी
से
सरसों
के
तेल
के
दीपक
का
काज़ल
लगवा
लेता
हूँ
अन्यथा
वह
अपनी
काज़ल
की
डब्बी
से
ही
लगा
देती
है|
आराम
मिलता
है|
काज़ल
के
नाम
से
मैं
हंसने
लगा
तो
रमाकांत
बोला,’अब
क्या
हुआ,
याद
आगई
क्या
भाभीजी
की?’
उसी
समय
टेलीफोन
आगया
| मैंने
फोन
उठाया
तो
पत्नी
की
आवाज़
सुनकर
पुनः
हंसने
लगा|
‘क्या
बात
है,
क्यों
हंस
रहे
हो’, पूछने
पर
जब
काज़ल
बाली
बात
बतायी
गयी
तो
वह
कहने
लगी,’वहीं
डब्बी
में
होगा
या
बनाकर
लगालो
दो
मिनट
में|’
‘अरे,
भई!
उन
उँगलियों
की
बात
और
ही
होती
है|’
मैंने
कहा
तो
वह
भी
हंसने
लगी,
बोली
‘दिन
भर
लेपटोप
पर
मत
लगे
रहा
करो,
ये
नौबत
ही
क्यों
आये
|’
पीछे
से
रमाकांत
ने
नमस्कार
जी’
की
आवाज़
लगाई
तो
अचानक
चौंक
कर
पूछा,’कोई
आया
है
क्या
घर
पर
?’
‘
हाँ,
रमाकांत’, मैंने
कहा
|
‘अच्छा
अच्छा,
चलो
अच्छा
है,
मन
लगा
रहेगा
| खाने
आदि
का
ठीक
चल
रहा
है
न
| दिन
भर
दोनों
लोग
घूमने
में,
बातों
में,
बहस
में
ही
मत
लगे
रहना|’
विविध
निर्देशों-अनुदेशों
के
पश्चात
फोन
तो
बंद
होगया
परन्तु
काज़ल
अभी
भी
विचार
में
बना
रहा
| उँगलियों
व
काज़ल
से
स्मृतियों
में
माँ
की
तस्वीर
उभर
कर
आने
लगी
जो
बचपन
में
हम
सब
बच्चों
को
पकड़-पकड़
कर
जबरदस्ती
सरसों
के
तेल
के
दीपक
की
कालिख
से
बना
सूखा
काज़ल
का
पाउडर
उँगलियों
से
लगाया
करती
थी
|अपितु
चुटकी
से
आँखों
में
भर
भी
दिया
जाता
था
| कुछ
देर
तक
आँखों
में
धूल-धूल
सी
लगने
व
पानी
बहने
से
पश्चात
आराम
मिल
जाता
था|
पिताजी
भी
अकाउंट
का
कार्य,
लिखने-पढने
का
करते
थे
तो
उन्हें
भी
अक्सर
आना-कानी
करने
के
बाद
लगवाना
पडता
था|
यह
क्रम
मेरे
चिकित्सा-महाविद्यालय
में
चयन
होने
पर
भी
चलता
रहा
यहाँ
तक
कि
कभी-कभी
शादी
के
बाद
भी|
माँ
का
तर्क
था
कि
पढते-लिखते-खेलते
आँखों
के
कांच
पर
धूल
आजाती
है,काज़ल
से
कांच
मंज
जाता
है
अर्थात
साफ़
होजाता
है
जैसे
चश्मे
के
कांच
को
साफ़
करना
पडता
है
|’
‘तुम
तो
यार
डाक्टर
हो,
रमाकांत
की
आवाज़
से
मेरी
विचार
श्रृखला
टूटती
है|
वह
कह
रहा
था,
‘डाक्टर
लोग
तो
मना
करते
थे
काज़ल-वाज़ल
लगाने
के
लिए,
फिर?’
‘हाँ, यह तो है’, मैंने कहा, ‘यद्यपि अधिकाँश हम डाक्टर लोग पाश्चात्य शिक्षा-प्रभाववश, क्योंकि काज़ल एक भारतीय प्रथा थी, काज़ल व सुरमे की बुराई ही करते थे, न लगाने का परामर्श देते थे कि यह प्रथा आँखों के इन्फेक्शन व रोगों का कारण है| परन्तु यार, व्यक्तिगत रूप से मैंने काज़ल को कभी
खलनायक नहीं माना अपितु सुरमा लगाने की सलाई, जो सुरमा प्रयोग करने वाले समाज व परिवारों में प्रयोग होती थी और एक ही सलाई से सारा परिवार लगाया करता था, को ही खलनायक मानता रहा |’
‘तो
क्या
तुम
अब
भी
लगाते
हो
काज़ल
?’ उसने
आश्चर्य
से
पूछा
|
हाँ,
कभी-कभी,
मैंने
हँसते
हुए
कहा,
’काज़ल
तो
यार,
बचपन
में
माँ
लगाया
करती
थी
जबरदस्ती|
पर
वह
तो
सदैव
गर्म-गर्म
बना
हुआ
काजल,
उंगली
को
दिए
पर
गर्म
करके
और
प्रत्येक
आँख
के
लिए
अलग-अलग
उंगली
से
लगाया
करती
थी|
हमारे
यहाँ
आँखों
के
इन्फेक्शन
कम
ही
होते
थे|’
‘कुछ
होता
भी
है
काज़ल-सुरमा
से
या
यूंही
आदतानुसार
मन
का
भरम
है|
होता
क्या
है
काज़ल?
रमाकांत
पूछने
लगा
|
‘ऐसा
नहीं
है’, मैंने
कहा,
‘काज़ल
वास्तव
में
सूखा
हो
या
गीला,
एक
प्रकार
का
‘अधिशोषक’
(एड्जोर्बेंट)
का
कार्य
करता
है
| आंसुओं
की
बहने
की
गति
तीब्र
करके
वाह्य
धूल
व
आतंरिक
प्रक्रियाओं
से
बने
अप-द्रव्यों,
स्रावों
को
बहा
देता
है|
आंसुओं
की
अधिकता
से
रेटिना
व
आँख
की
पुतली
आदि
पुनः
नम
होजाती
हैं
और
आराम
मिलता
है|
आज
के
लुब्रीकेंट,टीयर्स
आदि
ड्रोप्स
की
अपेक्षा
आँखों
की
स्वाभाविक,
सहज
अश्रु-प्रक्षालन
प्रक्रिया
के
प्रयोग
द्वारा
|’
विचार
फिर
श्रीमती
जी
की
ओर
मुड
जाते
हैं
| शादी
के
पश्चात
आधुनिक
बहू
ने
कम
से
कम
एक
बात
तो
अपनी
पुरातन
सास
से
ज्यों
की
त्यों
सीखी
कि
वह
भी
दीपक
से
काज़ल
बनाकर
सारे
परिवार
को
लगाती
रही
वही
उंगली
से|
और
अभी
भी
कभी-कभी
आवश्यकता
अनुभव
होने
पर
मैं
स्वय
ही
कह
कर
काज़ल
लगवा
लेता
हूँ,
लाभ
भी
होता
ही
है|
यद्यपि
बच्चों
के
बड़े
होने
पर
एवं
स्कूल-कालिज
जाने
पर
यह
काज़ल-प्रथा
सिर्फ
दीपावली
के
रात
भर
जलने
वाले
सरसों
के
दीपक
तक
ही
सीमित
रह
गयी
|’
‘यार,
काज़ल
तो
महिलायें
लगाती
हैं,
सुन्दर
बड़ी-बड़ी
आँखें
दिखने
हेतु;
‘कज़रारे
नयना,
मतवारे
नयना.’
सुना
नहीं
है
| भाभीजी
भी
तो
मोटा-मोटा
काज़ल
लगाती
हैं
न,
और
वो
पड़ोसन..|’
‘हाँ,
सही
उपयोग
तो
वही
है’, मैंने
हंसकर
बात
काटते
हुए,
हाँ
में
हाँ
मिलाते
हुए
कहा,
‘महिलाओं
में
सौंदर्य
प्रसाधन
की
भांति
तो
काज़ल
का
प्रयोग
युगों
से
चला
आरहा
है
एक
प्रमुख
कृत्य
की
भांति,
नेत्रों
के
सौंदर्य
के
प्रतीक
रूप
में
| क्या
प्यारा
गाना
है..’हाय
काज़ल
भरे
मदहोश
ये
प्यारे
नैना’ हम
दोनों
सुर
में
सुर
मिला
कर
गाने
लगते
हैं
|
‘अरे
काज़ल
का
क्या
कहते
हो
|’,
रमाकांत
बोला,
’कठोर
अंग्-छिपाऊ
वस्त्र
नियमन
प्रथा
वाले
समाज
में
भी
सारा
शरीर
ढके
सिर्फ
आँख
चमकाती
हुई
महिलाएं
भी
नकाब
या
लंबे
घूंघट
के
अंदर
कज़रारे
नयना
रखने
से
नहीं
चूकतीं
| आजकल
तो
आँखों
के
गड्ढे
व
कालिमा
छिपाने
के
लिए
आई-लाइनर
और
अब
तो
हरा,नीला,लाल,गुलाबी,सुनहरा
आई-शेडो
का
ज़माना
है
जिसे
लगा
कर
महिलायें
जादूगरनी,
लेडी-ड्रैक्यूला
या
कहानियों
में
पुरुषों
को
कैद
करके
रखने
वाली
खूसट
रानियों-राजकुमारियों
जैसी
लगती
हैं...और,
मैंने
जोडते
हुए
कहा,
’ये
काज़ल
तो
सारे
प्रोटोकोल-रिश्तों
की
दूरियां
भी
समेट
देता
है,
लोग.‘कजरारे
कज़रारे
तेरे
कारे
कारे
नैना
‘...गाते
हुए
नाचने
लगते
हैं
|’
हम
दोनों
हंसने
लगते
हैं|
‘
वाह!
आज
तो
सुबह-सुबह
“काज़ल-पुराण”
वाचन
होगया|
आँख
तो
स्वस्थ
हो
ही
गयी
होगी
बिना
काज़ल
के
ही|
इस
पर
भी
एक
कहानी
लिख
देना’, रमाकांत
ठहाका
लगाते
हुए
बोला
|
‘अच्छा
सुझाव
है|
चलो
लंच
का
जुगाड
किया
जाय’,
मैंने
उठते
हुए
कहा|
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