२५.यक्ष प्रश्न
पुष्पाजी अपनी महिला मंडली के नित्य सायंकालीन समागम से लौटकर आयें तो कहने लगीं, ‘आखिर राम ने एक धोबी के कहने पर सीताजी को वनबास क्यों दे दिया? क्या ये उचित था |’
‘क्या
हुआ?’
मैंने
पूछा,
तो
कहने
लगीं,’आज
पर्याप्त
गरमा-गरम
तर्क
-वितर्क
हुए|शान्ति
जी
कुछ
अधिक
ही
महिलावादी
हैं,इतना
कि
वे
अन्य
महिलाओं
के
तर्क
भे
नहीं
सुनतीं
| उनका
कहना
है
कि
पुरुष
सदा
ही
नारी
पर
अत्याचार
करता
आया
है|
मेरे
कुछ
उत्तर
देने
पर
बोलीं
कि
अच्छा
तुम
डाक्टर
साहब
से
पूछ
कर
आना
इनके
उत्तर
| वे
तो
साहित्यकार
हैं
और
नारी-विमर्श
आदि
पर
रचना
करते
रहते
हैं|
वे
आपसे
भी
बात
करना
चाहती
हैं
|’
‘क्यों
नहीं’ ,मैंने
कहा,
‘अवश्य,
कभी
भी
|’
दूसरे
दिन
ही
तेज
तर्रार
शान्ति
जी
प्रश्नों
को
लेकर
पधारीं,
साथ
में
अन्य
महिलायें
भी
थीं
| बोलीं
‘क्या
उत्तर
हैं
आपके
इन
परिप्रेक्ष्य
में?’
मैंने
कहने
का
प्रयत्न
किया
कि
एसा
नहीं
है,
राम
शासक
थे
और.....वे
तुरंत
ही
बात
काटते
हुए
कहने
लगीं,’राम
राजा
थे..प्रजा
के
हित
में
व्यक्तिगत
हित
का
परित्याग,
लोक-सम्मान
आदि..
ये
सब
मत
कहिये,
घिसी-पिटी
बातें
हैं,
बेसिर-पैर
की...पुरुषों
की
सोच
की|’
कुछ
महिलाओं
ने
कहा
भी
कि
पहले
उनकी
बात
तो
सुनिए,
परन्तु
वे
कहती
ही
गयीं,
‘आखिर
नारी
ही
क्यों
सारे
परीक्षण
भोगे,
पुरुष
क्यों
नहीं?’
मैंने
प्रति-प्रश्न
किया,’अच्छा
बताइये,क्या
एक
स्त्री
के
कहने
पर
राम-वनबास...क्या
स्त्री
का
पुरुष
पर
अत्याचार
नहीं
था|
पुरुष
तो
कभी
ये
प्रश्न
नहीं
उठाते,
क्यों
| प्रश्न
उठते
भी
हैं
तो..हाय,
विरुद्ध
विधाता..आज्ञाकारी
पुत्र
.में
दब
कर
रह
जाते
हैं|
विवाह
सुख
भोगते
राम
को
ठेल
दिया
वनबास
में
और
दशरथ
को
मृत्युलोक
में
| क्या
स्त्री
पर
पुरुषों
को
प्रश्न
उठाने
का
अधिकार
नहीं
है
?’
शान्ति
जी
कुछ
ठिठकीं
परन्तु
हतप्रभ
नहीं
हुईं,
बोलीं,
‘तो
आप
मानते
हैं
कि
जैसे
राम
पर
अत्याचार
हुआ
वैसे
ही
सीता
पर
भी
अग्नि-परीक्षा
व
सीता-त्याग
रूपी
अत्याचार–अन्याय
हुआ,तो
राम
पुरुषोत्तम
क्यों
हुए?’
‘क्या
आप
समझती
हैं
कि
राम
को
कष्ट
नहीं
हुआ
होगा
यह
निर्णय
लेते
हुए’, मैंने
कहा,
‘पत्नी-सुख
वियोग
एवं
आत्म-ग्लानि
की
दो-दो
पीडाएं
झेलना
कम
दुःख
होगा|
वे
चाहते
तो
दूसरा
विवाह
कर
सकते
थे,
परन्तु
नहीं
सामाजिक
परिवर्तन
की
उस
युग-संधिबेला
पर
राम
एक
उदाहरण,
एक
मर्यादा
स्थापित
करना
चाहते
थे
–प्रत्येक
स्थित-परिस्थिति
में
एक
पत्नीव्रत
की|’
‘तो
उन्होंने
स्वयं
वनबास
क्यों
नहीं
लेलिया’, साथ
में
बैठी
प्रीति
जी
ने
पूछ
लिया
|
‘तो
फिर
एक
पत्नीव्रत
मर्यादा
कैसे
स्थापित
होती
और
वे
कायर
कहलाते|
समस्या
समाधान
से
पलायन
करने
वाला
भगोड़ा,
कापुरुष
राजा|
सीता
को
यह
कब
मान्य
था
अतः
उन्होंने
स्वयं
ही
निर्वासन
को
चुना|
पति
का
अपमान
प्राय:
पत्नी
को
स्वयं
का
ही
अपमान
प्रतीत
होता
है,
क्या
यह
सही
नहीं
है’, मैंने
कहा
| सब
चुप
रहीं
|
‘
सीता
ने
स्वयं
ही
निर्वासन
को
चुना...ये
नया
ही
बहाना
गढ़
लिया
है
आपने,
वाह!’..शान्ति
जी
ने
कहा
|
मैंने
पुनः
प्रयास
किया,
‘वास्तव
में
जैसे
राम
का
वनगमन
एक
राजनीति-सामाजिक
कूटनीति
का
भाग
था
वैसे
ही
सीता-वनबास
भी
विभिन्न
नीतिगत
राजनीति
के
कार्यान्वन
का
भाग
थे
|’
‘कैसे!’
वे
बोल
पडीं
|
देखिये, मैंने कहा, ‘कुछ विद्वानों का मत है कि सीता-वनबास हुआ ही नहीं, क्योंकि तुलसी की रामचरित मानस एवं महाभारत के रामायण प्रसंग में इस घटना का रंचमात्र भी उल्लेख नहीं है, अतः बाल्मीक रामायण में यह प्रसंग प्रक्षिप्त है, बाद में डाला गया, राम को बदनाम करने हेतु| परन्तु मेरे विचार से जन-श्रुतियां, लोक-साहित्य व स्थानीय प्रचलित कथाये आदि में कुछ अनकही बातें अवश्य होती हैं जो लोक-स्मृति में रह जाती हैं| जिन्हें पात्र की महत्ता व संगति से विपरीत मानकर सामाजिक-साहित्यकार-रचनाकार छोड़ भी सकते हैं|’
‘वस्तुतः
राम
एक
अत्यंत
ही
नीति-कुशल
राजनैतिज्ञ
थे|
समस्त
भारत
की
शक्तियों
का
ध्रुवीकरण
करके
अयोध्या
व
भारतवर्ष
को
अविजित
शक्ति
का
केंद्र
बनाना
उनका
ध्येय
था
| पूरे
भारत
में
उन्होंने
अपनी
मित्रता,
कूटनीति,
धर्माचरण
व
शक्ति-पराक्रम
के
बल
पर
शक्तियां
एकत्रित
कीं|
वनांचल
के
तमाम
स्थानीय
कबीले,
वनबासी
शासक,
आश्रम
व
ऋषि,
मुनि
अस्त्र-शस्त्रों
व
शक्ति
के
केंद्र
थे
| विश्वामित्र,
वशिष्ठ,
अगस्त्य,
भारद्वाज
सभी
ने
राम
को
अस्त्र-शस्त्र
प्रदान
किये,
परेंतु
महर्षि
बाल्मीकि
जो
बहुत
बड़े
शक्ति
के
केंद्र
थे,
उन्होंने
सिर्फ
आशीर्वाद
दिया, अस्त्र-शस्त्र
नहीं
|’
जैसा
मानस
में
पाठ
है....
‘मुनि कहँ
राम
दण्डवत
कीन्हा।
आसिरवादु विप्रवर दीन्हा।।’
‘वाल्मीकि
जी
ने
आशीर्वाद
तो
दिया
किन्तु
दिव्यास्त्रों
के
भण्डार
का
नाम तक
नहीं
लिया।
अतः
लंका
विजय
अर्थात
समस्त
भारतीय
भूभाग
का
ध्रुवीकरण
के
पश्चात
सिर्फ
अयोध्या
के
निकटवर्ती
वाल्मीकि
आश्रम
ही
शक्ति
का
केंद्र
बच
गया
था|
राम
ने
सोचा,यह
भण्डार
अब
व्यर्थ
है
इसका
सदुपयोग
होना
चाहिए।
उसी
वन
के
समीप
सीता
को
प्रेषित
किया, जहाँ
महर्षि
वाल्मीकि
का
आश्रम
था। राम
का
यह
कृत्य
महर्षि
को
अच्छा
नहीं
लगा।
महर्षि
ने
साध्वी सीता
को
संरक्षण
दिया।
महर्षि
ने
उनके
माध्यम
से
राम
को
सबक
सिखाने
का
निश्चय
कर,
लव
व
कुश
को दिव्यास्त्रों
का
संचालन
सिखाया।
समस्त
शस्त्र-शास्त्र
उन्हें
सौंप
कर
अयोध्या
से
लड़ने
योग्य
बनाया|
माँ
के
लाड़-प्यार
व
संरक्षण
में
और
महर्षि
के
कुशल निर्देशन
में
पल्लवित
बच्चे
अश्वमेध
के
घोडे
को
पकड़ने
के
प्रकरण
में
विश्व-विजयी
अयोध्या
की
समस्त
सेना
को
हराने
में
सफल
हुए|
इस
युद्ध
में
लंका-विजयी
शूरवीरों
के
दर्प
व
उनकी
शक्तियों
का
भी
दलन
हुआ
जो
राम
की
कूटनीति
का
भाग
था|
इस
प्रकार
राम
व
सीता
ने
परस्पर
सहयोग,
सामंजस्य
व
कूटनीति
से
अपने
पुत्रों
को
भी
महलों
के
राजसी
विलास,
लंका-विजयी
विश्व-विख्यात
महान
सम्राट
राजा
रामचंद्र
के
प्रभामंडल
के
दर्प
से
दूर
वनांचल
में
ज्ञानी
ऋषियों-मुनियों
छत्र-छाया
में
पालन-पोषण
का
प्रवंध
कर
दिया
ताकि
वे
सर्व-शक्तिमान
बन
कर
उभरें|’
‘
ये
त्याग
की
पराकाष्ठाएं
हैं
| इसीलिये राम,राम
हैं....सीता,
सीता|
त्याग,
तप,
धैर्य
व
कष्टों
में
तपकर
ही
तो
व्यक्ति
महान
होता
है|
यदि
राम-वनबास
नहीं
होता
तो
कौन
जनता
राम
को,
लक्ष्मण
को,
वे
सिर्फ
एक
राजा
होकर
रह
जाते,
न
इतिहास
पुरुष
होते,
न
पुरुषोत्तम
न
प्रभु
राम|’
‘कृष्ण-राधा
के
त्याग
तप
ने
ही
उन्हें
श्रीकृष्ण
व
श्रीराधिका
जी
बनाया
अन्यथा
कौन
पूछता
सीता
को
कौन
राधा
को...वे
भी
श्रीकृष्ण
की
एक
और
रानी
या
किसी
अन्य
पात्र
की
पत्नी
बन
कर
इतिहास
में
गुम
हो
जातीं
|
‘
तो
आप’का
मत
है
कि
सीता
के
साथ
कोइ
अन्याय
नहीं
हुआ’, शान्ति
जी
जल्दी-जल्दी
बोलीं,
‘ये
सारे
प्रश्न
निरर्थक
हैं?’
आप लोग
यह
बताइये,
मैंने
भी
प्रश्न
पूछ
लिया,
‘कि
क्या
सीता
के
काल-खंड
में
विदुषी
स्त्रियाँ
नहीं
थीं,
उन्होंने
ये
प्रश्न
क्यों
नहीं
उठाये?
विज्ञ,
पढी-लिखी,
विदुषी,
बीर-प्रसू,
शस्त्र-शास्त्र
कुशल
तीनों
माताएं;
कैकयी
जैसी
युद्धकुशल,
नीतिज्ञ,
देवासुर
संग्राम
में
दशरथ
की
रथ-संचालिका
एवं
सहायिका
ने
ये
प्रश्न
क्यों
नहीं
उठाये?
सीता
की
अन्य
तीनों
बहनों
ने
क्यों
नहीं
उठाये?’
यदि उठाये
भी
होंगें
तो
हमें
कैसे
ज्ञात
होगा,
वे
कहने
लगीं,
पुरुष
दंभ
व
राजाज्ञा
में
दबा
दिए
गए
होंगे
|
‘उसी
प्रकार
जैसे
सीता
पर
अत्याचार
के
तथ्य
आपको
ज्ञात
हैं’, मैंने
स्पष्ट
किया,
‘अन्यथा
हमें
क्या
पता
कोई
राम-सीता
थे
भी
या
नहीं,
सीता
वनबास
हुआ
भी
था
या
नहीं
| फिर
तो
सारे
प्रश्न
ही
निरर्थक
होजाते
हैं|’
‘और
अग्नि-परीक्षा
का
क्या
औचित्य
है
आपके
अनुसार
|’,
प्रीति
जी
ने
पूछा
|
आपने
रामचरित
मानस
तो
कई
बार
पढी
होगी|
ध्यान
दें,
जब
राम
कहते
हैं--
“तुम पावक
महं
करहु
निवासा,
जब
लगि
करों
निशाचर
नासा
|
जबहिं राम
सब
कहा
बखानी,
प्रभु
पद
हिय
धरि
अनल
समानी|
निज प्रतिबिम्ब
राखि
तहं
सीता,
तैसेहि
रूप
सील
सुविनीता
| “ ..अरण्यकाण्ड
‘अर्थातु सीताजी तो महर्षि अग्निदेव के आश्रय में चली गयीं जो उनके श्वसुर थे| वह तो नकली सीता थी जिसका हरण हुआ|
‘अब
लंकाकाण्ड
की
चौपाई
पर
गौर
करें--
“सीता
प्रथम
अनल
महं
राखी,
प्रकट
कीन्ह
चहं
अंतरसाखी”
‘तेहि
कारन
करूणानिधि,
कछुक
कहेउ
दुर्वाद,
सुनत
जातुधानी
सबै
लागीं
करन
बिसाद
|’
आखिर
बिना
असली
सीता
को
प्रकट
किये
वे
नकली
सीता
को
वहां
से
कैसे
साथ
लेजाते
|’
‘तो
फिर
सीताजी
लौटी
क्यों
नहीं
राम
के
साथ?’
किसी
महिला
ने
एक
और
प्रश्न
उठाया
|
‘जिससे कूटनीति का पटाक्षेप भी सत्य लगे,कुछ तो स्वाभिमान प्रकट होना ही चाहिए नारी का,ताकि प्रत्येक एरा-गेरा पुरुष इस उदाहरण रूप में स्त्री पर अत्याचार न करने लगे| यह
तीसरी
अग्नि-परिक्षा
थी,
वास्तव
में
शक्ति
के
पूर्ण
ध्रुवीकरण
के
पश्चात,शक्ति-रूप
की
आवश्यकता
समाप्त
होगई
| आदि-शक्ति
को
ब्रह्म
से
पूर्व
पहुँचना
होता
है
गोलोक
की
व्यवस्था
हेतु’,मैंने
हंसते
हुए
कहा
| वे
भी
मुस्कुराने
लगीं
|
‘पूरा
समाधान
नहीं
होपाया,आपके
उत्तर,
तर्क
व
व्याख्याएं
सटीक
होते
हुए
भी
पूर्ण
नहीं
हैं|’
शान्ति
जी
उठकर
चलते
हुए
बोलीं|
‘पूर्ण
यहाँ
कौन
है
शान्ति
जी ?
इस
प्रकार
के
ये
प्रश्न
युग-प्रश्न
हैं.यक्ष-प्रश्न.प्रत्येक
युग
में
अपने-अपने
प्रकार
से
प्रश्नांकित
व
उत्तरित
किये
जाते
रहेंगे|’
मैंने
समापन
करते
हुए
दोनों
हाथ
जोड़कर
कहा,
‘हम
तो
बस
आप
सबको,सभी
महिलाओं
को
‘जोरि
जुग
पाणी’
प्रणाम
ही
कर
सकते
हैं
इस
आशा
में
कि
शायद
रामजी
की
एवं
पुरुष-वर्ग
की
इस
तथाकथित
भूल
का
रंचमात्र
भी
निराकरण
होजाए|
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