१०.नायिका
...
अरे!
बहुत
दिन
बाद
मिले
हो
शांतनु!
बताओ
क्या
नया
लिखा
है,
एल्यूमिनी
असोसिएशन
की
पार्टी
में
मिलने
पर
सरिता
ने
पूछ
लिया
|
‘एक
नया
उपन्यास.’तेरे
नाम’|’
शांतनु
ने
बताया
|
‘ये
मेरे
ऊपर
उपन्यास
लिखने
का
क्या
अर्थ
|’
‘पागल
हो,
आपके
ऊपर
क्यों
लिखूंगा’, सरिता
जी
|
‘क्यों,
क्या
अब
हम
उपन्यास
की
नायिका
के
भी
लायक
नहीं
रहे
|’
‘नहीं,
ऐसी
बात
नहीं
है|’
‘तो
कैसी
बात
है?’
शांतनु
को
जबाव
नहीं
सूझा
तो
सरिता
हंसने
लगी,
फिर
बोली-
“वह
तेज-तर्रार
शांतनु
कहाँ
गया?’
‘अब
क्या
कहूं,
सरिता
जी
|’
ये
‘सरिता
जी’
क्या
होता
है
| अरे,
क्या
इतने
औपचारिक
होगये
हैं
अब
हम
| फिर
मुस्कुराकर
पूछने
लगी-
‘मेरी
बहस
व
तर्क
का
स्तर
तुम्हारे
बराबर
आया
?’
‘बहुत
ऊपर
हुज़ूर,’
शांतनु
ने
दोनों
हाथ
ऊपर
उठाकर
समर्पण
की
मुद्रा
में
उत्तर
दिया
|
‘ठीक,
अब
स्वीकार
करो
और
कहो
कि
ये
उपन्यास
मैंने
तेरे
ऊपर
ही
लिखा
है
सरू
|’
‘चलो
स्वीकार
किया,
हाँ
सच
है
|’
‘नहीं,
पूरा
वाक्य
कहो
|’
‘तुम्हारे
पतिदेव
सुनकर
नाराज़
होगये
तो|’
‘अब
मार
खाने
का
इरादा
है
क्या!
जाऊं,
पूछ
कर
आऊँ,
सुरेश
से
?’
‘अच्छा
माफ़
करो
बावा,
कान
पकड़ता
हूँ
|’
‘तो
कहो
|’
‘हाँ
सच
है
ये
उपन्यास
तेरे
ऊपर
ही
है,सरू
|’
‘या
हमारे
ऊपर
?’
‘एक
ही
बात
है,’
शांतनु
ने
कहा
|
‘अच्छा बताओ,
क्या
तुम
इसीलिये
इतने
औपचारिक
होते
जारहे
हो
कि
मैंने
तुम्हें
नहीं
सुरेश
को
चुना|’
‘नहीं
भाई
|’
‘अच्छा
बताओ,
क्या
तुम्हें
बुरा
नहीं
लगा
था
|’
‘ इसका
क्या
जबाव
हो
सकता
है,
सरिता !...और
क्या
तुम
जानती
नहीं
हो?’
शांतनु
ने
प्रतिप्रश्न
किया
और
अब
क्यों
पूछ
रही
हो?
--
क्यों
न
पूछा
कि
क्यों
मेरे
आंसू
निकले
|
तेरे
कूचे
से
होकर
जब
बेआबरू
निकले
|
‘अच्छा
ये
नहीं
पूछोगे
कि
मैंने
सुरेश
को
क्यों
चुना
|’
सरिता
कहने
लगी
|
“वेवकूफी की बात को क्या पूछना |” वाह ! क्या बात है, क्या उत्तर है, यही तो...यही तो..मैं चाहती हूँ कि वही पुराना वाला शांतनु दिखाई दे |
‘
मैं
तो
वही
हूँ,’
शांतनु
बोला
|
‘हाँ,
हाँ
..परन्तु
मेरे
सामने
तुम
शांत
व
गंभीर
क्यों
हो
जाते
हो
?’
‘मेरा
नाम
ही
शांतनु
है
|’
‘
हाँ
ठीक,
परन्तु
मुझे
वही
तेज-तर्रार,
हर
बात
पर
तर्क-वितर्क
करता
हुआ
शांतनु
चाहिए
अन्यथा
मुझे
दुःख
होगा,
मैं
स्वयं
को
कभी
क्षमा
नहीं
कर
पाऊँगी|
क्या
तुम
चाहते
हो
कि
सरू
सदा
आत्मग्लानि
में
जीती
रहे
|’
सरिता
बोलती
गयी
|
‘
नहीं,
यह
नहीं
होना
चाहिए
|’
शांतनु
ने
कहा
तो
सरिता
कहने
लगी
..’अच्छा
तो
कहो
कि
मेरे
सामने या
पीछे,
कभी
भी
तुम
नाखुश
नहीं
रहोगे,
सदा
खुश-खुश
रहोगे
|’
‘अच्छा..अच्छा..’
शांतनु
हंसने
लगा
---
दर्द
देकर
वो
कहें
आंसू
बहाते
क्यों
हो
|
वो
न
समझेंगे
अश्क
पीने
की
क्या
जरूरत
है
|
हंसी
सुनकर,
अन्य
दोस्तों
को
छोड़कर
सुरेश
दोनों
के
नज़दीक
आते
हुए
बोला,’क्या
गुप-चुप
हंसी
की
बातें
हो
रही
हैं,पुरानी
मुलाकातें,हमें
भी
बताओ”
शांतनु
ने
कहा,
मुफलिसी
की
दास्ताँ
हैं
क्या
कहें
हम,
क्या
बताएं
,
दास्ताँ
तो
आपकी
है
दोस्त, हम क्या
सुनाएँ
|
ये
बात,
सुरेश
बोला,
लो
झेलो-
‘इक
बोझ
को
ठेलकर,
मेरे
ऊपर,
वो
कहते
हैं
कि
दोस्ती
निभाई
है
|
ये
किस
जन्म
का
वैर
निभाया
है
तूने,
या
हमने
ही
दुश्मन
से
दोस्ती
सजाई
है
|’
‘अच्छा
तो
अब
हम
बोझ
हुए,’
सरिता
बोली
|
‘मैंने
नहीं
कहा,’
शान्तनु
जल्दी
से
बोला
|
‘अबे,
लदा
मेरे
ऊपर
है,
तू
कैसे
कहेगा
|’
‘अच्छा
सुनो’, सरिता
अचानक
बोली,
‘देखो,
शांतनु
ने
मेरे
लिए
उपन्यास
लिखा
है..’तेरे
नाम’
उसकी
नायिका
मैं
हूँ
|’
‘और
बेचारा
कर
ही
क्या
सकता
है
अब’,
सुरेश
ने
कहा
तो
दोनों
हंसने
लगे
|
‘चलो-चलो
डिनर
लग
गया
है’, सरिता
जाते
हुए
बोली
|
११.
नारी
और
मुक्ति
…
नारी
विमर्श
व्याख्यान
माला
गोष्ठी
प्रारम्भ
होने
में
अभी
कुछ
समय
था
| पधारे
हुए
सभी
विज्ञजन
विचार
विमर्श
करने
लगे
| पांडेजी
ने
अभी
हाल
में
ही
पढ़ी
हुई
उर्वशी-पुरुरवा
की
कथा
पर
अत्यंत
तार्किकता
व
सतर्कता
से
सौन्दर्यपूर्ण
समीक्षा
करते
हुए
अंत
में
कहा,
’उर्वशी
पुरुरवा
के
लिए
वरदान
है’|
‘हाँ,निश्चय
ही,क्योंकि
नारी,पुरुष
का
मुक्ति-पथ
है,
मुक्ति-सेतु
है
|’ डॉ.शर्मा
बोले
|
‘और
नारी
की
मुक्ति
?’ युवा
लेखक
राघव
ने
प्रश्न
उठाया
|
‘पथ
की
भी
कभी
मुक्ति
होती
है!
वह
तो
सदा
मुक्ति
हेतु
पथ-दीप
का
कार्य
करता
है|
स्त्री
तो
स्वयं
ही
पथ
है
मुक्ति
का,
इस
पथ
पर
चले
बिना
कौन
मुक्त
होता
है|
संसार
के
हितार्थ
कुछ
तत्व
कभी
मुक्त
नहीं
होते
मूलतः
प्रकृति-तत्व,अन्यथा
संसार
कैसे
चलेगा
|’ डॉ. शर्मा
ने
अपना
पक्ष
रखा
|
‘अर्थात आपका कथन है कि नारी की मुक्ति होती ही नहीं कभी|’ अमित जी ने हैरानी से पूछा, ‘यह तो बड़ा अन्याय हुआ नारी के साथ |’
‘नारी
प्रकृति
है,माया
है
| स्त्री
द्विविधा
भाव
है
| वही
मोक्ष
से
रोकती
भी
है
अर्थात
संसारी
भाव
में
जीव
अर्थात
पुरुष
का
जीना
हराम
भी
करती
है
और
और
वही
मोक्ष
का
द्वार
भी
है
जीना
आरामदायक
भी
करती
है
| काली
के
रूप
में
शिव
को
शव
बना देती
है,
सती
के
रूप
में
शिव
को
उन्मत्त
करती
है
तो
पार्वती
बन
कर
शिव
को
चन्द्रचूड
बना
देती
है
और
तुलसी
को
तुलसीदास
| नारी
को
गौ
रूप
कहा
जाता
है
अर्थात
वह
प्रकृति
में
पृथ्वी
है,
गाय
है,
इन्द्रिय
है,
संसार
हेतु
अविद्या
है
तो
तत्व
रूप
में
विद्या,
ज्ञान
व
बुद्धि
| बंधन
में
तो
पुरुष
अर्थात
जीव
रूप
में
ब्रह्म
या
पुरुष
रहता
है|
उसी
को
मुक्त
होना
होता
है|
नारी,
प्रकृति,
माया
तो
बद्ध-पुरुष
को
मुक्ति
के
पथ
पर
लेजाती
है|’ डॉ.
शर्माजी ने
स्पष्ट
किया
| तभी
तो
ईशोपनिषद
में
मोक्ष
मन्त्र
कहा
गया
है...
” विद्या
चा
अविद्या
यस्तत वेदोभय स:
अविद्यया
मृत्युं
तीर्त्वा
विद्ययामृमनुश्ते
||”
‘तो
फिर
नारी
के
जीवन
का
उद्देश्य
ही
क्या
रह
जाता
है
| जब
मुक्ति
ही
नहीं
?,राघव
ने
पुनः
प्रश्न
उठाया
|
‘नारी
की
मुक्ति
पुरुष
से
जुडी
है
| यदि
नारी
पुरुष
को
मुक्ति
की
ओर
लेजाती
है|
वह
पुरुष
को
मुक्ति-पथ
पर
चलने
को
तैयार
कर
पाती
है
अपने
प्रेम,तप,साधना,त्याग
से,
तो
पुरुष
अनाचारी,अत्याचारी,
समाज
एवं
नारी
पर
भी
अत्याचार
का
कारण
नहीं
बनेगा|
समाज
सम
व
द्वंद्वों
से
रहित
रहेगा|
क्योंकि
मूलतः
द्वंद्वों
का
कारण
पुरुष
ही
होता
है
जो
माया-बद्ध
जीव
है
माया
से
भ्रमित|
मेरे
विचार
से
यही
नारी
की
मुक्ति
है
|’ डॉ. शर्मा
कहने
लगे
|
‘आखिर
यह
मुक्ति
है
क्या
?’अमित
जी
कहने
लगे,‘जन्म-मरण
के
बंधन
से
मुक्त
होना
या
सांसारिक
बंधन
से
मुक्ति
या
संसार
से
?’
‘और
ये
बंधन
क्या
है
|’
ड़ा
शर्मा
ने
प्रति-प्रश्न
किया,
पुनः
स्वयं
ही
कहने
लगे,’द्वेष,
द्वंद्व,
झगड़े,लाभ-हानि,लोभ-लालच
में
लिप्तता
ही
बंधन
है
| यदि
नारी
पुरुष
को
सहज
रखने
में
सफल
रहती
है
तो
सारा
समाज
ही
सहज
रहता
है|
यही
नारी
का
नारीत्व
है
और
यही
उसकी
मुक्ति|
पुरुष
भी
नारी
को
पूर्णता
प्रदान
कर
उसे
मुक्ति-पथ
की
ओर
लेजाता
है|
अंत
में
मुक्ति
तो
जीव–तत्व
की
ही
होती
है
वह
न
पुरुष
होता
है
न
स्त्री
वह
तो
आत्मतत्व
है|
तभी
तो
कहा
जाता
है...
’देहरी
लौं
संग
बरी
नारि
और
आगे
हंस
अकेला
|’
‘पर
जीव
तो
नारी
भी
है,
फिर
वह
मुक्त
क्यों
नहीं
हो
सकती
?’ पांडे
जी
ने
पूछा
|
‘
वास्तव
में
तत्व
व्याख्या
में
नारी
जीव
नहीं
है
| वह
तो
शक्ति
का
रूपांतरण
है
| अतः
नारी
तो
सदा
मुक्त
है|
वह
बंधन
में
होती
ही
कब
है|
वह
तो
स्वयं
बंधन
है,
जीव-पुरुष
रूपी
ब्रह्म
को
बांधने
वाली
| पुरुष
ही
बंधन
में
होता
है|
ब्रह्म
पुरुष
रूप
में,जीव
रूप
में
आकर
स्वयं
ही
माया-बंधन
में
बंधता
है
ताकि
संसार
का
क्रम
चलता
रहे
| नारी
तो
स्वयं
ही
माया
है,
प्रकृति
है|
पुरुष
–ब्रह्म
को
बाँध
कर
नचाने
वाली|
यद्यपि
माया
स्वयं
ब्रह्म
की
इच्छा
पर
ही
कार्य
करती
है
स्वतंत्र
रूप
से
नहीं
क्योंकि
वह
उसी
का
अंश
है’.......
“ ब्रह्म
की
इच्छा
माया
नाचे
जीवन
जगत
सजाये
|
जीव
रूप
जब
बने
ब्रह्म
फिर
माया
उसे
नचाये
|”
‘यह
तो
विचित्र
सा
तर्क
लगता
है
|’ राघव
ने
कहा
|
‘हाँ,
तभी
तो
पाश्चात्य
जगत
में
एक
समय
‘नारी
जीव
है
भी
या
नहीं’
का
प्रश्न
उपस्थित
था
अपितु
नारी
को
मानवी
माने
जाने
में
भी
संदेह
था|
यह
बड़ा
ही
क्रूड
व
क्रूर
ढंग
है
वस्तुस्थिति
को
प्रकट
करने
का
जो
अति-भौतिकतावादी
सभ्यता
के
अनुरूप
ही
हो
सकता
है
| भारतीय
सनातन
सभ्यता,
ब्राह्मण,जैन
आदि
में
भी
नारी
को
मुक्ति
या
मोक्ष
का
अधिकारी
नहीं
माना
जाता
रहा
है
परन्तु
उसे
मोक्ष
के
पथ
पर
लेजाने
बाला
माना
जाता
रहा
है|
इसीलिये
उसे
नर
का,पुरुष
का,ब्रह्म-जीव
का
बंधन
कहा
गया|
यह
कथन
का
तात्विक
व
सात्विक
रूप
है|’
ड़ा
शर्मा
जी
ने
बताया
|
‘और
ये
अवतारों
को
क्या
कहेंगे
आप,हमारे
यहाँ
सारे
अवतारों
के
साथ
सदा
नारी
भी
होती
है
या
कोई
भी
शक्ति
अवश्य
अवतार
लेती
है
जिनकी
सहायता
की
अवश्य
ही
आवश्यकता
पडती
है
इन
अवतारों
को;उसका
क्या
उत्तर
देंगें
आप
?’ सुषमा
जी
पूछने
लगीं
|
‘आपने बड़ी देर में भाग लेने का कष्ट किया बातचीत में’,डॉ. शर्मा हंसते हुए बोले,’एक विचार भाव से वैज्ञानिक-अध्यात्म के अनुसार तो ये अवतार, चाहे सत्य हों या कल्पित, जीवन व प्राणी की क्रमिक विकास यात्रा प्रतीत होते हैं । मत्स्य से जीवन की उत्पत्ति, जल से पृथ्वी पर आना, लघु मानव—मानव तक की उत्पत्ति,शारीरिक शक्ति-धनु,परशु,गदा आदि विविध हथियार,मानसिक शक्ति,तप,त्याग,मर्यादा व प्रकृति रूप के समन्वयक राम और शक्ति, ज्ञान, व्यवहार के समन्वयक कृष्ण तक| आगे अभी भविष्य के गर्भ में है |’ ये मानव व्यवहार की युग-संधियां भी कही जा सकती हैं|
‘आप
सही
कह
रही
हैं
सुषमा
जी,
सभी
के
साथ
उनकी
मूल
शक्ति
रूप
में
या
नारी-पत्नी
रूप
में
प्रकृति
या
माया
अवश्य
अवतार
लेती
है
जन्म
लेती
है
| जैसे
ही
बद्ध-जीव
या
अवतार
का
पृथ्वी-संसार
पर
कार्य
समाप्त
होजाता
है
वह
मुक्ति
के
पथ
पर
अग्रसर
होता
है,
उसकी
शक्तियां,
माया,
प्रकृतिरूपा
शक्ति-अवतार
भी
उससे
पहले
या
बाद
में
जगत
से
प्रस्थान
कर
जाती
हैं
| इसीलिये
तो
हमारे
यहाँ
शक्ति-रूपा
पत्नी
सदैव
पति
से
पहले
मृत्यु
की
कामना
करती
है
ताकि
गोलोक
में
जाकर
वहाँ
की
व्यवस्था
भी
संभाली
जाय
अपनी
स्वेच्छा
से
भी
और
आशीर्वाद
भी
“सदा
सुहागन
रहो”
का
दिया
जाता
है
| ड़ा
शर्मा
हंस
कर
कहने
लगे
|’ ‘और
सती
प्रथा
जैसी
कुप्रथा
शायद
भी
इस
तात्विक
बात
का
अर्थ-अनर्थ
करने
से
उत्पन्न
हुई
|’ उन्होंने
पुनः
कहा
|
‘परन्तु
अवतार
तो
सर्व-समर्थ
होते
हैं,
ब्रह्म
रूप,
ईश्वर
का
अवतार;
तो
फिर
शक्तियों
को,
प्रकृति
को
साथ
आने
की
क्या
आवश्यकता
?’ राघव
ने
तर्क
किया
|
‘पुरुष
या
ब्रह्म
या
ईश्वर
स्वयं
अकेला
कहाँ
कार्य
कर
पाता
है,
वह
तो
अकर्मा
है
कार्य
तो
प्रकृति
ही
करती
है
| अवतार
भी
प्रकृति,
शक्ति,
योगमाया
द्वारा
ही
कार्य
कराते
हैं
|’
डॉ .शर्मा
बोले
|
‘तो
फिर
प्रकृति
ही
सब
कुछ
हुई,
और
स्त्री
भी,
फिर
पुरुष,
ईश्वर,
ब्रह्म,
अवतार
की
क्या
आवश्यकता
है
यदि
हैं
और
यदि
कल्पित
हैं
तो
भी
इनकी
परिकल्पना
की
क्या
आवश्यकता
है
|’ पांडे
जी
ने
तर्क
दिया
|
‘परन्तु
शक्ति
स्वेच्छा
से
कहाँ
कार्य
करती
है
| वह
तो
पुरुष
या
ब्रह्म
की
इच्छानुसार
ही
क्रियाशील
होती
है
| “एकोहं
बहुस्याम
“ की
ईषत
इच्छा
से
ही
तो
प्रकृति
चेतन
होकर
संसार
रचती
है|
अर्थात
ब्रह्म–प्रकृति,
नर-नारी,
दोनों
ही
आवश्यक
हैं
सृष्टि
हेतु,
संसार
के
लिए,
संसार
के
सहज
सामंजस्य
के
लिए|
यदि
संसार
के
इस
द्वैत,
द्विविधा
भाव
के
तात्विक
ज्ञान
को
सभी
स्त्री-पुरुष
समझ
कर
जीवन
में
उतारें
यथानुसार
कार्य
करें
तो
समाज-संसार
में
द्वंद्वों
का
प्रश्न
ही
खडा
नहीं
होगा
|’
‘तो
फिर
संसार
कैसे
चलेगा,
क्यों
रचा
जायेगा,
क्यों
बनेगा
? किस
लिए,
किसके
लिए?’
प्रश्न
उठाया
गया
|
‘तभी
तो
दोनों
अलग
अलग
जन्म
लेते
हैं,
आकर्षण-विकर्षण
के
चलते
मिलते
हैं..प्रेमी-प्रेमिका,
पति-पत्नी
बनते
हैं.संसार-चक्र
बनता
व
चलता
है|
एक
दूसरे
को
मुक्ति
पथ
पर
लेजाते
हैं|
तभी
तो
कहा
गया
है
कि
नारी
के
बिना
मुक्ति
नहीं,बिना
संसार
को
जाने
मुक्ति
कैसी,बिना
संसार
रूपी
वैतरिणी
पार
किये
कहाँ
मोक्ष
और
उसके
लिए
गाय
की
पूंछ
अर्थात
पृथ्वी
का,
प्रकृति
का,नारी
का,ज्ञान-बुद्धि
का
पल्लू
पकडना
अत्यावश्यक
है|’
डॉ. शर्मा
कहते
गए
|
“उर्वशी
कहती
है
कि
तुम
सौ
वर्ष
तक
भी
प्रेम
करते
रहो
तो
भी
नारी
प्रेम
नहीं
करेगी,
स्त्रियाँ
निर्मोही
होती
हैं
|” पांडेजी
हंसते
हुए
कहने
लगे
|
‘वैसे
तो
यह
स्वर्ग
की
अर्थात
सिद्धि-प्रसिद्धि
के
शिखर
की
बात
है,
जहां
ममता-मोह-बंधन
आदि
नहीं
होते
परन्तु
संसार
में,
पृथ्वी
पर
नारी
प्रेम
का
प्रतीक
है|
तभी
तो
उर्वशी
भूलोक
पर
आती
है
परन्तु
भूलोक
की
नारी
का
पूर्ण
धर्म
नहीं
निभा
पाती|
प्रकृति
व
माया
की
भांति
नारी
भी
शक्ति
है,ऊर्जा
है,पावर
है,और
शक्ति
निर्मोही
होती
है
उसके
साथ
नाजायज़
छेड़खानी
से
धक्का,
शाक
अर्थात
करेंट
लगने
का
सदैव
अंदेशा
रहता
है|
नर
को
भी
समाज
को
भी,और
परिणाम,पंगु
होजाना.नर
का
भी, समाज
का
भी, सावधान’.
कहते
हुए
डॉ. शर्मा
मुस्कुराये
|
‘बडी
देर
से
नारी-निंदा
पुराण
कहा-सुना
जारहा
है|’,
अमृता
जी
जो
बड़ी
देर
से
सोफे
पर
बैठी
हुईं
सब
सुन
रहीं
थीं,
बोलीं
|
‘
निंदा
या
प्रशंसा-स्तुति,
पांडे
जी
बोले,’फिर,यह
तो
हम
पुरुषों
के
मंतव्य
हैं
| आप
लोग
अपने
मंतव्य
प्रस्तुत
करें
|’
‘सुना
नहीं
है’, अमृता
जी
बोलीं.....
“ नारी
निंदा
मत
करो,
नारी
नर
की
खान
|
नारी से
नर
होत
हैं,
ध्रुव,
प्रहलाद
समान
||”
बिलकुल
सत्य
है
अमृता
जी,
डॉ शर्मा
कहने
लगे,पर
इसके
लिए
नारी
को
ध्रुव,प्रहलाद
की
माँ
के
समान
भी
तो
होना
पडेगा
|’
१२.पर्यावरण
दिवस...
क्लब-हाउस
के
चारों
ओर
घूमते
हुए
मि.वर्मा,मि.सेन
व
मुकुलेश
जी
की
मुलाक़ात
सत्यप्रकाश
जी
से
हुई
|
‘चलिए
सत्य
जी,’मि
सेन
बोले,’आज
पर्यावरण
दिवस
है,दो सौ
पौधे
आये
हैं,ग्राउंड
में
लगवाने
के
लिए,चलेंगे
|’
‘हाँ
हाँ
चलिए’,
मि.वर्मा
भी
कहने
लगे,‘कुछ
समाज
सेवा
भी
होजाय|’
‘मुझे
ब्लॉग
पर
पर्यावरण
पर
कहानी
लिखनी
है|’
सत्य
जी
बोले,‘वैसे
क्या
एक
दिन
पौधे
लगाने
से
पर्यावरण
सुधर
जायगा?’
उन्होंने
प्रति-प्रश्न
किया
|
अरे,
यह
लोगों
में
पर्यावरण
के
प्रति
चेतना
जगाने
हेतु
प्रचार-प्रसार
है|आज
कई
प्रोग्राम
हैं|
स्कूलों
में
बच्चे
नाटिकाएं
कर
रहे
हैं,नुक्कड़
नाटक
भी
होरहे
हैं|
स्थान-स्थान
पर
विचार-विमर्श
व
विविध
कार्यक्रम
किये
जा
रहे
हैं, पानी
बचाओ, पृथ्वी बचाओ, पर्यावरण-मित्र
बनें
आदि
| सभी
प्रवुद्धजनों
को
अवश्य
ही
सहयोग
देना
चाहिए,अच्छे
कार्य
में
|’
पर
मैं
सोचता
हूँ,सत्यप्रकाश
जी
कहने
लगे,‘कि
आप-हम
सबको
ये
पेड़
लगाते
हुए,पर्यावरण-दिवस
मनते
हुए, देखते–सुनते
हुए
लगभग
२०-३०
वर्ष
होगये
| क्या
आपके
संज्ञान
में
कहीं
कुछ
लाभ
हुआ
है
| पेड़
काटना/कटना
रुका
है,पानी
की
कमी
पूरी
हुई
है
कहीं,नदियों
का
प्रदूषण
कम
हुआ
है,झीलें-तालाब
लुप्त
होने
से
बचे
हैं,वातावरण
शुद्ध
हुआ
है?
नहीं, अपितु
लगातार
वन-पर्वत
उजड
रहे
हैं,
नदियों
में
कचरा
बढ़
रहा
है,पानी
बोतलों
में
बिकने
लगा
है|’
‘तो
क्या
ये
सारे
प्रोग्राम
व्यर्थ
है,जागरूकता
न
लाई
जाय
?’वर्मा
जी
बोले
|
भई
देखिये,
सत्य
जी
कहने
लगे,
आज
ये
बच्चे,
युवा,
बड़े,
नेता,
अफसर,
पेड़
लगाकर,
नाटिका
करके,
भाषण
देकर,
उदघाटन
करके
घर
जायेंगे
और
घर
जाकर
सभी
फ्लश
में
फाउंटेन
में
दिन
भर
पानी
बहायेंगे,
टूथब्रश
करेंगे,
विदेशी
फल-सब्जियां
खरीदेंगे,
विदेशी
क्वालिटी
के
बिना
फल-फूल
देने
वाले
सजावटी
पौधे
गमले
में
लगाकर
घर
सजायेंगे
| प्लास्टिक
के
खिलौने,
साइकल,
ब्रांडेड
जूते,
पानी
की
बोतलों,रेकेट-शटल
से
मस्ती
करेंगे
|महिलायें
कूड़ा
फैंकने
हेतु
तरह
तरह
की
प्लास्टिक
की
थैलियाँ
खरीदेंगी
| सरकार
बड़ी-बड़ी
मल्टी-स्टोरी
बिल्डिंगें,माल,सड़कें
बनाने
हेतु
वन-पेड़
काटने
की
अनुमति
देगी
|’
तो
फिर,मुकुलेश
जी
असमंजस
में
धीरे-धीरे
बोले,‘व्हाट
टू
डू, आपकी
राय
में
फिर
क्या
करना
चाहिए?’
‘कथनी
की
बजाय
करनी|’
सत्य
जी
बोले
|
कैसे,वर्माजी
बोले
|
‘शिफ्ट
टू
राईट’...’जीवन-यापन
के
सहज
भारतीय
तौर-तरीकों
पर
लौटना
| पर्यावरण
संस्कृति
का
अंग
बने
और
हर
दिन
ही
पर्यावरण-दिवस
हो
|’
‘क्या
मतलब’, वर्मा
जी
पूछने
लगे
?
सत्य
जी
हंसते
हुए
कहने
लगे,‘ब्रश
छोडकर
नीम/बबूल
की
दातुन
का
प्रयोग
करें,फ्लश-सिस्टम
समाप्त
हो
| वे
पुनः
हंसने
लगे,बोले,पुराने‘लेंड-डिफीकेशन’सिस्टम
से
पानी
बचता
है,फ़्लैश
और
सीवर
की
बुराइयों
से
भी
दूर|
प्लास्टिक
का
प्रयोग
बिलकुल
बंद,मल्टी
स्टोरी
आवास,माल
सब
समाप्त
किये
जायं|
भूमि,धरती
जैसी
है
वैसी
ही
प्राकृतिक
तरीके
से
घर,गाँव,
नगर
बसने
दिए
जायं|
सारे
आधुनिक
गेजेट्स
जन-सामान्य,पब्लिक
के
प्रयोग
के
लिए
बंद
कर
दिए
जायं|तभी
तो
होगा
पर्यावरण,संस्कृति
का
हिस्सा
और
हर
दिन
होगा
पर्यावरण
दिवस|’
‘क्या
कहते
हैं!ये
कैसे
होसकता
है?
दुनिया
की
लाइफ
ही
पैरालाइज
हो
जायगी|’
तीनों
एक
साथ
हैरानी
से
बोले, और
यदि
ये
वैज्ञानिक
प्रगति
नहीं
होती
तो
आप
स्वयं
लैपटाप
पर
ब्लॉग
या
कहानी
कैसे
लिख
रहे
होते?
तीनों
हंसने
लगे|’
‘यदि नहीं हो सकता,तो फिर चिंता क्या,ये सब नाटक करने के क्या आवश्यकता,चलने दीजिए ऐसे ही जैसा चल रहा है | कल की बजाय आज ही पेड़,पौधे,वनस्पति,पानी,नदियाँ समाप्त होजायं | कल की बजाय आज ही प्रलय आजाय,धरती नष्ट होजाय|जब सभी नष्ट होंगे तो किसी का क्या जायगा | कम से कम नयी धरती तो जल्द तैयार होगी|’ सत्य जी हंसते हुये कहते गए,‘और यदि लेपटोप के लिए प्लास्टिक की उत्पत्ति होती ही नहीं तो ब्लॉग लिखने की आवश्यकता ही कहाँ पडती, यह नौबत ही क्यों आती|’
आपका
मतलब
है
कि
ये
सारी
विज्ञान-प्रगति,
एडवांसमेंट
व्यर्थ
है
| सब
इंजीनियर,वैज्ञानिक,
विज्ञान,सारा
देश
मूर्ख
है
जो
इतनी
कसरत
कर
रहे
हैं
?’
मुकुलेश
जी
में
कहा
|
‘नहीं,
ऐसा
नहीं
है’,सत्य
जी
बोले,‘पर, पहले
गड्ढा
खोदो
फिर
उसे
भरो
की
नीति
अपनाना
व्यर्थ
है
| ये
सारी
प्रगति,विज्ञान,कला,साधन,भौतिक-उत्पादन,गेजेट्स
आदि
सभी
केवल
विशिष्ट
कार्यों,
परिस्थितियों,संस्थानों
(उदाहरणार्थ
राष्ट्रीय
रक्षा-सुरक्षा
) के
प्रयोगार्थ
ही
सीमित
होनी
चाहिए,सामान्य
जन
के
भौतिक
सुख-साधन
हेतु
कदापि
नहीं, क्योंकि
मानव
की
सुख-साधन
लिप्सा
का
कोई
अंत
नहीं
| यहीं
से
विनाश
प्रारंभ
होता
है|
ज़िंदगी
होगई
टूथब्रश
व
पेस्ट्
के
हज़ारों
ब्रांड
व
तरीके
प्रयोग
करते
परन्तु
दांतों
के
रोग-रोगी-अस्पताल बढ़ते
ही
जारहे
हैं, क्यों?
अतः
वैज्ञानिक
प्रगति
के
अति-व्यक्तिवादी
व
घरेलू
प्रयोग-उपयोग
से
प्रकृति
व
वातावरण
का
तथा
स्वयं
सृष्टि
व
मानव
का
विनाश
प्रारम्भ
होता
है,
यह
जानें,
समझें,
मानें
उस
पर
चलें
|’
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