४.कहानी
मानव की
...
जब मानव एकाकी था, सिर्फ़ एक अकेला मानव शायद मनु
या
आदम ( मनुष्य, आदमी
,मैन)
हाथ
में एक हथौडानुमा हथियार लिए घूमता रहता था, एक अकेला । एक दिन अचानक घूमते-घूमते उसने एक अपने जैसे ही अन्य आकृति के जानवर (व्यक्ति) को जाते हुए देखा। उसने छिप कर उसका पीछा किया। चलते-चलते वह आकृति एक गुफा के अन्दर चली गयी।
उस मानव ने चुपके से गुफा के अन्दर प्रवेश किया तो देखा की एक उसके जैसा ही मानव बैठा फल आदि खा रहा है। उसकी आहट जानकर अचानक वह आकृति उठी और अपने हाथ के हथौडेनुमा हथियार को उठा लिया। अपने जैसे ही आकृति को देख कर वह आश्चर्य से बोली |
‘तुम कौन ? अचानक क्यों घुसे यहाँ, अगर में हथौडा चला देता तो !’ पहला मानव चारों और देख कर बोला, ‘अच्छा तुम यहाँ रहते हो। मैं तुमसे अधिक बलशाली हूँ। मैं भी तुम्हें मार सकता था। यह स्थान भी अधिक सुरक्षित नहीं है। तुम्हारे पास फल भी कम हें, इसीलिये तुम कमजोर हो | अच्छा अब हम मित्र हैं मैं तुम्हें अपनी गुफा दिखाता हूँ।‘
दूसरा मानव उसकी गुफा देख कर प्रभावित हुआ। उसने उसे प्रशंसापूर्ण निगाहों से देखा| पहले मानव ने कहा, ‘तुम यहाँ ही क्यों नही आजाते, मिलकर फल एकत्रित करेंगे और भोजन करेगे|’ उसने उसे ध्यान से देखा, उसका हथौडा भी बहुत बड़ा है, उसकी गुफा भी अधिक बड़ी है, उसके पास फल आदि भी अधिक मात्रा में एकत्रित हैं| उसने उसकी बाहों की पेशियाँ छू कर देखी वो अधिक मांसल व कठोर थीं| उसका शरीर भी उससे अधिक बड़ा था। दूसरे मानव ने कुछ सोचा और वह अपने फल आदि उठाकर पहले मानव की गुफा में आगया।
और
यह
वही
प्रथम
दिन
था
जव
नारी ने
स्वेच्छा से पुरूष के
साथ
सहजीवन
स्वीकार
किया। यह प्रथम परिवार था। यह सहजीवन
था।
कोई
किसी
के
आधीन
नहीं।
नर-नारी
स्वयं
में
स्वच्छंद
थे, जीने, रहने, किसी के भी साथ रहने आदि के लिए, अन्य जीवों, पशु-पक्षियों की तरह । यद्यपि सिंहों, हंसों आदि उच्च प्राणी जातियों की भांति प्रायः जीवन पर्यंत एक साथी के साथ ही रहने की मूल प्रवृत्ति तब भी थी अब की तरह (निम्न जातियाँ कुत्ते,बिल्ली आदि की भांति कभी भी किसी के भी साथ नहीं) और यह युगों तक चलता रहा।
जब संतानोत्पत्ति हुई, यह देखा गया कि दोनों साथियों के भोजन इकट्ठा करने जाने पर अन्य जानवरों आदि की भांति उनके बच्चे भी असुरक्षित रह जाते हें तो किसी एक को घर रहने की आवश्यकता हुई। फल इकट्ठा करने वाली जीवन पद्धति की सभ्यता में शारीरिक बल अधिक महत्वपूर्ण होने से अपेक्षाकृत अधिक बलशाली पुरूष ने बाहर का कार्य सम्भाला। क्योंकि नारी स्वभावतः अधिक तीक्ष्ण बुद्धि, सामयिक बुद्धि व त्वरित निर्णय क्षमता में कुशल थी अतः स्वेच्छा से वह घर का, परिवार का प्रबंधन करने लगी। यह नारी-सत्तात्मक समाज की स्थापना थी। पुरूष का कार्य सिर्फ़ भोजन एकत्रित करना, सुरक्षा व श्रम का कार्य था। यह भी सहजीवन की परिपाटी थी। स्त्री-पुरूष कोई किसी के बंधन में नहीं था, सब अपना जीवन जीने के लिए स्वतंत्र थे। युगों तक यह प्रबंधन चलता रहा, आज भी कहीं कहीं दिखता है।
जब
मानव
कृषि
आदि
कार्यों
से
उन्नत
हुआ
।
घुमक्कड़-घुमंतू
समाज
स्थिर
हुआ,
भौतिक
उन्नति,
मकान,
घर,
कपडे,
मुद्रा
आदि
का
प्रचलन
हुआ
तो
तो
पुरूष
व्यवसायिक
कर्मों
में
अधिक
समर्थ
होने लगा,
स्त्री
का
दायरा
घर
रहा,
पुरूष
के
अधिकार
बढ़ने
लगे,
राजनीति,
धर्म,
शास्त्र आदि
पर
पुरुषों
ने
आवश्यक
खोजें
कीं|
अबंधित
शारीरिक
व
यौन
संबंधों
के
रोगों
द्वंदों
आदि
रूप
में
विकार
सम्मुख
आने
लगे तो नैतिक आचरण,
शुचिता,
मर्यादाओं
का
बिकास
हुआ।
नारी-मर्यादा
व
बंधन
प्रारंभ
हुए।
और
समाज
पुरूष-सत्तात्मक
होगया।
परन्तु
सहजीवन अभी भी था। नारी मंत्री,
सलाहकार,
सहकार,
विदुषी के रूप में घर में रहते हुए भी स्वतंत्र व्यक्तित्व थी।
यस्तु
नार्यस्तु
पूज्यन्ते
का
भाव
रहा।
महाकाव्य-काल
तक
यह
व्यवस्था
चलती
रही।
पश्च-पौराणिक
काल
में
अत्यधिक
भौतिक
उन्नति,
मानवों
(स्त्री-पुरुष
सभी
)के
नैतिकता
से
गिरने
के
कारण,
धन
की
महत्ता
के कारण सामाजिक-चारित्रिक
पतन हुआ| पुरूष-अहं
द्वारा
महिलाओं
से
उनका
अधिकार
छीना
गया
( मुख्यतया,
घर,
ज़मीन,
जायदाद
ही
कारण
थे
) और
पुरूष
नारी
का
मालिक
बन
बैठा।
आगे
की
व्यवस्था
सब
देख
ही
रहे
हैं।
इस
सब
के
साथ
साथ
प्रत्येक
युग
में-अनाचारी
होते
ही
रहते
हैं।
हर
युग
में
अच्छाई-बुराई
का
युद्ध
चलता
रहता
है।
तभी
राम
व
कृष्ण
जन्म
लेते
हैं।
और
यदा
यदा
धर्मस्य
का
क्रम
होता
है। नैतिक लोग
नारी
का
सदैव आदर करते हैं,
बुरे
नहीं -अतः बात
वही
है
कि
समाज
व
सिस्टम
नहीं
व्यक्ति
ही
खराव
होकर
समाज
को
ख़राब
व
बदनाम
करता
है।
५.क्या विज्ञान ही ईश्वर है
...
आज रविवार है, रेस्ट-हाउस की खिड़की से के सामने फैले हुए इस पर्वतीय प्रदेश के छोटे से कस्बे में आस पास के सभी गाँवों के लिए एकमात्र यही बाज़ार है। यूं तो प्रतिदिन ही यहाँ भीड़-भाड़ रहती है परन्तु आज शायद कोई मेला लगा हुआ है,
कोई पर्व हो सकता है।
यहाँ दिन भर रोगियों के मध्य व सरकारी फ़ाइल रत रहते समय कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता। तीज, त्यौहार पर्वों की बात ही क्या। आज न जाने क्यों मन उचाट सा होरहा है।
मैं अचानक कमरे से निकलकर, पैदल ही रेस्ट-हाउस से बाहर ऊपर बाज़ार की ओर चल देता हूँ, अकेला ही, बिना चपरासी, सहायक, ड्राइवर या वाहन के, मेले में।
शायद भीड़ में खोजाना चाहता हूँ, अदृश्य रहकर, सब कुछ भूलकर, स्वतंत्र, निर्वाध, मुक्त-गगन में उड़ते पंछी की भांति। क्या मैं भीड़ में एकांत खोज रहा हूँ?
शायद हाँ। या स्वयं की व्यक्तिगतता (प्राइवेसी) या स्वयं से भी दूर... स्वयं को। एक पान की एक दूकान पर गाना आ रहा है 'ए दिल मुझे एसी जगह ले चल ...' सर्कस में किसी ग्रामीण गीत की ध्वनि बज रही है।
ग्रामीण महिला-पुरुषों की भीड़ दूकानों पर लगी हुई है। महिलायें श्रृंगार की दुकानों से चूड़ियाँ खरीद-पहन रहीं हैं, पुरुष-साफा, पगड़ी, छाता, जूता आदि। नवयौवना घूंघट डाले पतियों के पीछे पीछे चली जारहीं हैं, तो कहीं कपडे, चूडी, बिंदी, झुमके की फरमाइश पूरी की जा रही है। तरह तरह के खिलोने,
गड़-गड़ करती मिट्टी की गाड़ी, कागज़ का चक्र, जो हवा में तानने से चक्र या पंखे की भांति घूमने लगता है। कितने खुश हैं बच्चे।
मैं अचानक ही सोचने लगता हूँ....किसने बनाई होगी प्रथम बार गाड़ी, कैसे हुआ होगा पहिये का आविष्कार
! ये चक्र क्या है, तिर्यक पत्रों के मध्य वायु तेजी से गुजरती है और चक्र घूमने लगता है...वाह ! क्या ये विज्ञान का सिद्धांत नहीं है? क्या ये वैज्ञानिक आविष्कार का प्रयोग-उपयोग नहीं है?
आखिर विज्ञान कहाँ नहीं है?
मैं प्रागैतिहासिक युग में चला जाता हूँ, जब मानव ने पत्थर रगड़कर आग जलाना सीखा व यज्ञ रूप में उसे
लगातार जलाए रखना जाना। क्या ये वैज्ञानिक खोज नहीं थी। हड्डी व पत्थर के औज़ार व हथियार बनाना, उनसे शिकार व चमडा कमाने का कार्यं लेना, लकड़ी काटना-फाड़ना सीखना, बृक्ष के तने को 'तरणि' की भांति उपयोग में लाना, क्या ये सब वैज्ञानिक खोजें नहीं थीं? पुरा
युग में जब मानव ने घोड़े, बैल, गाय आदि को पालतू बना कर दुहा, प्रयोग किया, क्या ये विज्ञान नहीं था। मध्ययुग में लोहा, ताम्बा, चांदी, सोना की खोज व कीमियागीरी क्या विज्ञान नहीं थी? कौन सा युग विज्ञान का नहीं था? चक्र का हथियार की भांति प्रयोग, बांसुरी का आविष्कार।
विज्ञान आखिर कब नहीं था, कब नहीं है, कहाँ नहीं है?
सृष्टि का, मानव का प्रत्येक व्यवहार, क्रिया, कृतित्व, विज्ञान से ही संचालित, नियमित व नियंत्रित है। तो हम आज क्यों चिल्लाते हैं..विज्ञान-विज्ञान..वैज्ञानिकता, वैज्ञानिक सोच...; आज का युग विज्ञान का युग है, आदि ? विश्व के कण कण में विज्ञान है, सब कुछ विज्ञान से ही नियमित है..। विचार अचानक ही दर्शन की ओर मुड़ जाते हैं। वैदिक विज्ञान, वेदान्त दर्शन कहता है- 'कण कण में ईश्वर है, वही सब कुछ करता है, वही कर्ता है, सृष्टा है, नियंता है।'
तो क्या विज्ञान ही ईश्वर है? विज्ञान क्या है? भारतीय षडदर्शन -सांख्य, मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, वेदान्त का निचोड़ है कि -प्रत्येक कृतित्व तीन स्तरों में होता है- ज्ञान, इच्छा, क्रिया --पहले ब्रह्म रूपी ज्ञान का मन में प्रस्फुटन होता है; फिर विचार करने पर उसे उपयोग में लाने की इच्छा; पुनः ज्ञान को क्रिया रूप में परिवर्तित करके उसे दैनिक व्यवहार -उपयोग हेतु नई नई खोजें व उपकरण बनाये जाते हैं। ज्ञान को संकल्प शक्ति द्वारा क्रिया रूप में परिवर्तित करके उपयोग में लाना ही विज्ञान है, ज्ञान का उपयोगी रूप ही विज्ञान है, उसका सान्कल्पिक भाव -तप है, व तात्विक रूप--दर्शन है।
ज्ञान, ब्रह्म रूप है; ब्रह्म जब इच्छा करता है तो सृष्टि होती है, अर्थात विज्ञान प्रकट होता है। विज्ञान की खोजों से पुनः नवीन ज्ञान की उत्पत्ति, फिर नवीन इच्छा, पुनः नवीन खोज--यह एक वर्तुल है, एक चक्रीय व्यवस्था है... यही संसार है...संसार चक्र...विश्व पालक विष्णु का चक्र...जो कण कण को संचालित करता है।...'अणो अणीयान, महतो महीयान'....जो अखिल (विभु, पदार्थ, विश्व) को भेदते भेदते अणु तक पहुंचे, भेद डाले, वह - विज्ञान; जो अभेद (अणु, तत्व, दर्शन, ईश्वर) का अभ्यास करते करते अखिल (विभु, परमात्म स्थित, आत्म स्थित ) हो जाए वह दर्शन है...।
‘अरे ! देखो डाक्टर जी ...। अरे डाक्टर जी...आप !’ अचानक सुरीली आश्चर्य मिश्रित आवाजों से मेरा ध्यान टूटा....मैंने अचकचाकर आवाज़ की ओर देखा, तो एक युवती को बच्चे की उंगली थामे हुए एकटक अपनी ओर देखते हुए पाया, "आपने हमें पहचाना नहीं डाक्टर जी, मैं कुसमा, कल ही तो इसकी दबाई लेकर आई हूँ, कुछ ठीक हुआ तो जिद करके मेले में ले आया।"
ओह ! हाँ,...हाँ, अच्छा अच्छा.."मैंने यंत्रवत पूछा। "अब ठीक है?"
जी हाँ,"वह हंसकर बोली।"
अरे सर, आप!" अचानक स्टेशन मास्टर वर्मा जी समीप आते हुए बोले। "अकेले, आप ने बताया होता, मैं साथ चला आता।"
कोई बात नहीं वर्मा जी, मैंने मुस्कुराते हुए कहा। "चलिए स्टेशन चलते हैं।"
६.क्वालिटी
ऑफ
लाइफ
...
‘नीलेश, रात को कब आये, बड़ी देर करदी |’ सुबह नाश्ते की मेज पर चंद्रकांत जी ने पूछा |
‘ हाँ, पापा, आफिस में काम कुछ अधिक था,तीन दिन से टूर पर रहने से काम इकट्ठा भी होगया था | कुछ कंपनियों के मर्जर के लिए भी मीटिंग में भी काफी ‘डिफरेंस ऑफ ओपीनियन’ थी, अकाउंट्स में भी कुछ गडबडियां थीं | तर्क-वितर्क व सैटिल करते-कराते काफी समय होगया और रास्ते में ट्रेफिक जाम ने तो बस पूछिए ही मत, हालत ही खराब करदी,सदा की तरह..एज यूज़ुअल|’
‘हूँ,चंद्रकांत जी एक लंबी सांस लेकर बोले,‘आखिर क्या लाभ है इस सारी भाग-दौड का,दंद–फंद करने का,अतिभौतिकता के पीछे भागने का|ये ऊंची-ऊंची इमारतें,बड़ी-बड़ी कंपनियां,एसी मॉल-होटल कल्चर,भागम-भाग का जीवन|
न
खाने का समय न आराम का|क्या फर्क पड़ा है मानव जीवन पर,इतनी वैज्ञानिक उन्नति-विकास के पश्चात भी मानव के जीवन में,व्यवहार में कोई परिवर्तन आया है क्या?’
‘अंतर
तो
आया
है,इतना
दिख
तो
रहा
है
|’ नीलेश
ने
प्रतिवाद
किया|
‘पहले
बृक्षों–झोपडियों
पर
रहते
थे
अब
आलीशान
बंगलों-फ्लेटों
में
सुख-चैन
से
व
शान
से
रहते
हैं|
पहले
जहां
पैदल
चलकर
हफ़्तों-महीनों
में
पहुँचते
थे
अब
वायुयान
में
कुछ
घंटे
में|
पहले
चटाई
पर
सोते
थे
अब
८”
मोटे
गद्दे
पर
व
एसी
में
आराम
से
सुख-पूर्वक|
पहले
ढोलक
बजाते
थे
अब
होम-थियेटर
में
मस्ती
करते
हैं|’
‘ये तो देश-काल,परिस्थिति के अनुसार भौतिक सुख-साधन-भोग की स्थिति है| मानव तो वहीं का वहीं है| वही मानसिकता, लड़ाई-झगड़े, द्वंद्व-द्वेष, मतभेद | पहले चोरी होती थी अब टैक्स-चोरी, पहले तलवार से तो अब विचारों की तलवार से लड़ते-भिडते काटते हैं| पहले चाकू-तलवार से तो अब गोली-बन्दूक से, ट्रक से कुचलकर हत्याएं होती हैं | सुख-दुःख एक तुलनात्मक भाव हैं, स्थितियां हैं | पहले जब सभी जमीन पर सोते थे सब बराबर थे| अब असमानता बढ़ी, दुःख बढ़ा | सभी के पास चटाई ही थी, किसी को निद्रा-अनिद्रा का दुःख नहीं, सब बराबर | किसी की चटाई कुछ अच्छी होती थी अपने को अधिक सुखी मान लेता था| यही बात आज भी है| जो ८” के गद्दे पर सोता है वह ४” मोटे गद्दे वाले से स्वयं को ऊंचा व् सुखी समझता है| जिस पर कार नहीं वह दुखी और जिस पर कार है वह भी दुखी कि उस पर तीन कारें क्यों नहीं| कौन सुखी है,“नानक दुखिया सब संसार“ |’ चंद्रकांत जी कहने लगे|
‘क्यों
सुखी
नहीं
हैं|
आज
का
आदमी
एसी
कार
में
सुखपूर्वक
चलता
है|अपने
कार्य
व
व्यापार
को
शीघ्रता
से
व
अधिकता
से
कर
सकता
है|
पहले
बैलगाड़ी
में
गंतव्य
स्थान
पर
एक
माह
में
पहुंचते
थे
और
व्यापार
करके
महीनों
में
लौटते
थे|अब
वायुयान
से
एक
घंटे
में
पहुंचकर
उसे
दिन
वापस
लौट
कर
अपना
काम-धंधा
संभाल
लेते
हैं|
व्यापार-व्यवसाय
कितना
बढ़
गया
है,अंतर्राष्ट्रीय
व्यापार
भी|
दुनिया
की
दूरियां
घट
गयी
हैं
अब
तो
मोबाइल
पर
ही
आप
अपना
कार्य-व्यापार
कर
लेते
हैं,’
बहू
सुनीता
कहने
लगी|
‘ये
सब
आभासी
हैं|,’चंद्रकांत
जी
ने
कहा,’वास्तव
में
तो
सभी
शीघ्रातिशीघ्र
अपना
काम
करना
चाहते
हैं
| गंतव्य
पर
पहुँचना
चाहते
हैं
| पर
तुलनात्मक
रूप
में
देखें|
उदाहरणार्थ
मानलो
किसी
को
एक
कांट्रेक्ट
प्राप्त
करना
है
| जो
शीघ्रातिशीघ्र
प्रस्थान
करेगा
वही
पहले
पहुंचेगा
| चाहे
दोनों
युगानुसार
बैलगाड़ी
का
उपयोग
करें
या
वायुयान
का|
जो
दूसरे
से
पहले
टिकट
की
लाइन
में(या
नेट
पर
मोबाइल
पर
अथवा
बैलों
को
जोडने)पहले
नहीं
पहुंचा
उसका
यान
छूट
जाएगा
और
ठेका
भी|
भ्रष्ट
उपायों
की
बात
पृथक
है
जो
इस
भागम-भाग
के
खाद-पानी
में
खूब
तेजी
से
पैर
पसारते
हैं|अतः
तुलनात्मक
लाभ-हानि
तो
वही
रही
न,
जो
अधिक
व
त्वरित
श्रम-संकल्प
करेगा
वही
जीतेगा|
दौड
चाहे
इक्के
की
हो
या
वायुयान
की|’
’वास्तव
में
तो
मानवता
व
जीवन
प्रफुल्लता
का
ह्रास
हुआ
है|’
वे
पुनः
कहने
लगे,‘जो
आदमी
साधारण
कुर्ता-पायजामा
में
खुश
था
आज
सूट
में
भी
खुश
नहीं
है|
अब
उसे
१००००/-
का सूट
चाहिए
| पहले
एक
ही
नौकरी,
काम-धंधा
कर
लिया,
खाने-पीने
को
और
खुश|
आज
एक-एक
लाख
सेलेरी
मिलती
है
पर
घर
देखने
की
फुर्सत
नहीं,
स्वयं
के
लिए,
मनोरंजन,
परिवार
के
लिए
समय
नहीं|
खाने-पीने
का
कोई
क्रम
नहीं|
सभी
सुख-साधन
हैं
परन्तु
कौन
उपयोग-प्रयोग-भोग
कर
पा
रहा
है?’
‘परन्तु
क्वालिटी
आफ
लाइफ
तो
बढ़ी
है|’
नीलेश
कहने
लगा,‘पहले
पेड
पर,
टपकती
हुई
झोंपडी
में
भीगते
थे
अब
आराम
से
पक्की
छत
के
नीचे
बरसात
का
आनंद
लेते
हैं|’
हाँ,’बट
फॉर
क्वालिटी
आफ
लाइफ
वी
आर
एन्डेजरिंग
द
लाइफ
इटसेल्फ’
नव
जवान
इतनी
कम
उम्र
में
ही
इतनी
अधिक
सेलेरी
पाते
हैं,
परन्तु
सिर
के
सारे
बाल
गायब
होकर
असमय
ही
वृद्ध
नज़र
आते
हैं
| अपने
पितृ-जनों
से
भी
अधिक
वुजुर्ग
लगते
हैं
| दिनभर
विद्युत
के
प्रकाश
में
कम्प्युटर
पर
कार्य,एसी
में
रहना,फ्रिज
का
बासी
खाना,वायुयान
में
अधिकाँश
घूमते
रहना,देशभर
में
व्यापार
या
कंपनी
की
सेवा
में,रात
में
चैन
से
सोना
नहीं|
न
खाने
का
समय,न
खेलने
का-घर
देखने
का|
और.....
“घर
को
सेवे,
सेविका,
पत्नी
सैवे
अन्य
|
छुट्टी
लें
तब
मिल
सकें,
सो
पति-पत्नी
धन्य
|”
क्वालिटी
का
अंदाज़
यह
है
कि
खेल
के
लिए
२०००-२०००
के
जूते,५०००
का
स्विम
सूट-ड्रेस,एंजोयमेंट-मस्ती
के
लिए
नब्बे-हज़ार
का
होम-थ्येटर
वह
भी
हफ्ते-दो
हफ्ते
में
एक
बार
के
लिए|आखिर
लाइफ
है
कहाँ?
क्रमश
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