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शुक्रवार, 14 जुलाई 2023

डॉ. श्याम गुप्त की संतुलित कहानियाँ----कहानी 13,पूरी–अधूरी कहानी ...


                                                              

१३.पूरीअधूरी कहानी ...

         उसने पीछे मुड़कर देखा, बुझे हुए बल्ब, मुरझाये बंदनवार, शोक संतप्त अशोक-पत्र, उदास सा लटका हुआ स्वागतम का बोर्ड | हर ओर वातावरण में एक उदासी, एक खामोशी, एक खालीपन सा फैला हुआ था | अचानक उसे अनुभव हुआ कि ये अकेलापन, उदासी, खालीपन उसके अंदर बहुत गहराई तक, दूर तक उतरता चला जारहा है | उसने एक गहरा निश्वांस लिया और चल दिया |

        सड़क पार करके उसने छोटे दरवाजे से पार्क की फील्ड .दो में प्रवेश किया और प्रथमबार उसने अनुभव किया कि उसकी आँखों में आंसू हैं| वह मुस्कुराया,‘शेखर, यह क्या !’ उसने अपने आप से कहा,’तुम तो दो दिन से उसके साथ-साथ, सामने ही रहकर रोके हुए थे उसे रोंने से | यही तो चाहा था उसने आख़िरी मुलाक़ात में|

       तुम मेरे सामने ही रहना...नहीं तो मैं...और रो पडी थी वह, उसके कंधे पर सिर रखकर| उसे ईर्ष्या हो आई उसके आंसुओं पर| वह तो रो भी नहीं सकता| विशिष्ट होने का गुरुबोध, अनु को पटरी से उतरने देने का दायित्वबोध |

       अरे, मैं साथ साथ ही रहूँगा, अवश्य ही | ताकि तुम मंडप से उठकर भाग लो, मेरा सिर खाने के लिए | उसने चुप होकर सर उठाकर आँखों में झाँक कर देखा और जबरदस्ती मुस्कुराई, बोली,

       मुझे भूल तो नहीं जाओगे ?’

       अभी तक सोचने का मौक़ा ही नहीं मिला इस पर, अनु!‘  

       अपना ख्याल रखोगे|’

       देखो मैं हंस रहा हूँ, उसने मुस्कुराने की कोशिश की और अपने पर किया हुआ बहुत पुराना कमेन्ट याद आया, ”एक्टिंग करता है स्साला |” और वह वास्तव में ही हंस पड़ा था जिसे तुरंत बंद कर दिया था अनु के होठों ने | उसने अचकचाकर उसकी ओर देखा |

      अलविदा,वह आंसू भरकर बोली |’

          उसे पीठ पर जलन महसूस हुई|अपने ख्यालों की धुन में वह धूप में तपती हुई बेंच पर जा बैठा था |

              **                  **                       **      

            और जब वह रो रोकर थक गयी तो कार की सीट पर अपने बगल में बैठे विजय को देखा| वह सोचने लगी, अजीब हैं हम भी | जिसको कल तक वह जानती भी नहीं थी, आज वही उसका सब कुछ है, उसका पति है; और शेखर, हाँ शेखर, जो उसका सब कुछ था, जीवन के सबसे सुखद सुहाने स्वप्निल दिवस जिसके साथ गुजारे थे आज उसका कोई भी नहीं| क्या इतनी कमजोर होती हैं ये रिश्तों के बंधन की डोर | क्या वास्तव  में दिल के ये बंधन कभी टूट सकेंगे ? वह भुला पायेगी उसे? और जो उसे करना ही होगा | पिताजी कहा करते थे, ’बेटा! सबको सबकुछ नहीं मिलता, हमें जो मिले उस पर संतोष करना चाहिए |’ 

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21.

       जीवन के कर्मवादी दृष्टिकोण पर चलने वाले व्यक्ति अक्सर सफल व्यक्ति होते हैं | कर्मण्येवाधिकारस्ते .” मानने वाले ये लोग भले ही बहुत उच्च पदों पर पहुँच पायें परन्तु जीवन में सदैव सफल संतुष्ट रहते हैं | ऐसे व्यक्ति

Trust no future however be pleasant ,

 Let the past buried it dead

 Act act on living present ….

आदि को सत्य रूप में चरितार्थ करते हुए अपने सारे बीते हुए कल की सफलताओं-असफलताओं को एक कोने में रखते हुए वर्तमान में जीते हैं | वे पीछे मुडकर नहीं देखते और ही उनको फुरसत होती है कि वे बीते कल पर सोचें और आने वाले कल पर भरोसा करें | वे तो बस वर्तमान में ही जीते हैं क्योंकि कर्म ही उनका मूल-मन्त्र होता है |

        हाँ कभी कभी एकांत में ये बीते पल पर सोचते भी हैं तो तुरंत ही वर्तमान से उसका सम्बन्ध निकाल कर भूतकाल की फाइल ज्यों की त्यों बंद कर देते हैं| परन्तु कभी जब बीते कल की फ़ाइल का कोई महत्वपूर्ण पृष्ठ अचानक आंधी के तीब्र झोंके की भांति खुल जाता है तो क्या होता है.? बस यही एक ऐसा क्षण होता है जब यूँही ढेर सी लगीं बीते पल की सारी फाइलें अचानक भरभराकर चारों ओर बिखर जाती हैं और उसके नीचे सारा वर्तमान दब कर रह जाता है और बस चारों ओर रह जाता है भूतकाल का अन्धकार ही अंधकार और विभिन्न प्रकार की बनती बिगडती स्मृतियों के आकार |

          एसी ही हालत थी शेखर की एक लंबे अरसे के पश्चात अनु से मिलने और दूसरे दिन घर आने के वायदे के बाद, जिसे वह मन से पूरी तरह निकाल चुका था | आज वह विवाहित है, एक बच्चे सुन्दर पत्नी का पति, प्रथम श्रेणी अफसर | ज़िंदगी में सफल, स्थिर संतुष्ट | परन्तु अनु से मिलने के बाद अचानक ही उसे महसूस हुआ कि जैसे वह स्मृतियों की सुधियों रूपी गलियों में उतरता चला जा रहा हो और उसके चारों ओर घना अंधकार छागया हो | अतीत का घना अंधकार और अतीत की ढेर सारी परछाइयां, यादें, घटनाएँ...विभिन्न प्रकार के बनते-बिगडते रंगों की ..नीले, हरे, लाल, पीले ...सभी मानों आपस में गड्ड-मड्ड होरहे हों| हर रंग एक घटना की कहानी कहने को आतुर हो जैसे |

          सूर्य की किरणों के सात रंग मिलकर श्वेत रंग बनते हैं जो दिन का प्रकाश होता है, जीवन होता है | परन्तु घटनाओं के ये भूतकालीन रंग तो मिलकर अन्धकार को जन्म दे रहे हैं | प्रकाश का ही एक पक्ष अंधकार भी तो है, वह सोचने लगा, सात रंगों से मिलकर श्वेत रंग बनता है यदि उन्हें क्रमवार रखा जाय तो और काला भी तो बनता है यदि उन्हें यूँही बेतरतीब बिना क्रम के मिलाया जाय तो, अनियमितता ही तो अंधकार है, विनाश है, मृत्यु है | दो ही तो रंग होते हैं, दोनों ही शाश्वत हैं, एक सिक्के के दो पहलू | एक तरफ अन्धकार दूसरी ओर प्रकाश और इस अतीत के अंधकार में घटित घटनाएँ इस तरह से गडबडा गयी हैं कि कहाँ प्रारम्भ है कहाँ इति इसका भान ज्ञान ही कठिन होरहा है |

          तो फिर हम वस्तुओं, वस्तुस्थितियों को क्रमिकता में, तारतम्यता में क्यों रखें?’, शेखर की तर्कशक्ति ने जागृत होकर प्रश्न किया, ’ताकि वे एक इन्द्रधनुष की भांति रंग-रंजित भी हों और श्वेत प्रकाश की जनक भी| यह तारतम्यता, क्रमिकता, निश्चितता ही तो अनुशासन है, प्रकाश है, जीवन है, और स्वानुशासन से बढकर कौन सा अनुशासन होता है | आत्मा के प्रकाश से बढ़कर कौन सा प्रकाश| चरित्र, मानव-आचरण, स्वभाव व्यवहार की सुस्पष्टता, सुरुचिकरता के साथ सामाजिक दायित्वबोध चारित्रिक-सुघडता, सुदृढ़ता जिसे हर परिस्थिति में सामंजस्यता के साथ बनाए रखा जाना ही श्वेत प्रकाश है, वर्तमान है, सत्यता की ओर प्रयाण है...असतो मा सद गमय का भाव है जो समस्त अंधकार को विस्मृत कर सकता है अतीत के अन्धकार को भी |’

         आत्म मंथन के पश्चात शेखर को प्रतीत हुआ जैसे तिमिर घटता जारहा है, कुहासा हटता जारहा है और आशा का सूर्य कर्तव्य-पथ पर पुनः जगमगाने लगा है| उसने निश्चय किया कि वह अनु से एक सहज मित्र की भांति मिलेगा व्यवहार करेगा, किसी कमजोरी का अनुभव प्रदर्शन नहीं करेगा| यही उचित मार्ग है ...

                           रास्ते तय हैं और तय हो चुकी हैं मंजिलें भी |

                           अपनी अपनी राह यूँही हंसके चलते जायंगे ||” 

 

                   **                    **                      **

        शेखर से मिलने के पश्चात अनु की भी यही हालत थी परन्तु जिस दृढता से उसने अब तक कर्तव्यपथ को निभाया था वही पथ उसे अब भी असीम दृढता प्रदान कर रहा था | भावानुभूति की

22.

अतिरेकता में निमज्जित होते हुए भी उसने निश्चय किया कि वह कोई असंतुलित भाव व्यवहार प्रकट नहीं करेगी | अपनी-अपनी राह पर दोनों ही सुव्यवस्थित, संतुष्ट स्थिर हैं तो फिर गिला क्या? और भी हों तो भी क्या..यूँही चलते रहना ही उचित है......

                  हर किसी को यहाँ मुकम्मिल जहां नहीं मिलता

                  कभी जमीं तो कभी आसमां नहीं मिलता |”

        और आत्म-संतुष्टि के भाव में दोनों ही निश्चिन्त होकर निद्रा देवी की गोद में चले गए |

 


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