हो गम न जहां
हो गम न जहां ,सुख हो या हो दुख
एसा इक जग हो अपना ।
वो कल कभी तो आयेगा ही,
चाहे आज हो केवल सपना।
हम जियें जहां औरों के लिये,
कोई न पराया अपना हो।
दुनिया हो दुनिया की खातिर ,
बस प्यार ही सुन्दर सपना हो।
औरों की खुशी अपने सुख हों,
उनके दुख अपने दर्द बनें।
हो शत्रु न कोई मीत जहां,
सब ही सब के हमदर्द बनें।
हो झूठ न सच,सत और असत,
ना स्वर्ग -नरक की माया हो।
बस प्रीति की रीति हो उस जग में,
और प्यार की सब पर छाया हो।
हो गम न जहां.......................॥
साहित्य के नाम पर जाने क्या क्या लिखा जा रहा है रचनाकार चट्पटे, बिक्री योग्य, बाज़ारवाद के प्रभाव में कुछ भी लिख रहे हैं बिना यह देखे कि उसका समाज साहित्य कला , कविता पर क्या प्रभाव होगा। मूलतः कवि गण-विश्व सत्य, दिन मान बन चुके तथ्यों ( मील के पत्थर) को ध्यान में रखेबिना अपना भोगा हुआ लिखने में लगे हैं जो पूर्ण व सर्वकालिक सत्य नहीं होता। अतः साहित्य , पुरा संस्कृति व नवीनता के समन्वित भावों के प्राकट्य हेतु मैंने इस क्षेत्र में कदम रखा। कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित......
रविवार, 2 अगस्त 2009
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