मुक्ति
मुझे नहीं चाहिए चिर-मुक्ति ,
मैं चाहता हूँ ,जन्म लेना ;
बार-बार,
अनेक बार।
मृत्यु एक पड़ाव है ,
जीवन की यात्रा का;
जहाँ जीव-
शरीर रूपी वस्त्र बदलता है ।
दास कबीर भले ही,
चदरिया जातां से ओड़कर ,
ज्यों की त्यों धर देते होंगे ;
पर ,चादर मैली कराने का,
बार-बार बदलने का,
आनंद कुछ और ही होता है।
यह धरती कर्मक्षेत्र है,
जहाँ प्रेयसी के कटाक्षों ,भ्रू-भंगों के बीच,
गृहस्थ जीवन के,आटे-दाल के
भावों की गाडी चलती है।
यहाँ सुख है,दुःख है,
संयोग है,वियोग भी,
प्रियतमा के रसीले ओठ हैं,
मदभरी चितवन है,
एवं स्पर्श की रोमांचक अनुभूति भी;
और है ,कर्म करसकने की,
अनोखी तृप्ति भी।
यहाँ हर वस्तु-
एक नया अध्याय खोलती है;
हर दिशा,
जीवन के नए आयाम तोलती है;
और यहाँ पर है, प्रेम-
प्रेम, जिसके ढाई आखर पढ़कर -
लोग कबीर हो जाते हैं।
ऐसी पृथ्वी पर,
ऐसी शान्ति दायिनी
आनंद दायिनी यात्रा पर
पुनः न आने का नाम है -
मुक्ति, तो-
कौन चाहेगा ऐसी मुक्ति ?
मुझे नहीं चाहिए
चिर-मुक्ति,
मैं चाहता हूँ,जन्म लेना-
बार-बार,
हज़ार बार॥
काव्य-दूत ---समाप्त
साहित्य के नाम पर जाने क्या क्या लिखा जा रहा है रचनाकार चट्पटे, बिक्री योग्य, बाज़ारवाद के प्रभाव में कुछ भी लिख रहे हैं बिना यह देखे कि उसका समाज साहित्य कला , कविता पर क्या प्रभाव होगा। मूलतः कवि गण-विश्व सत्य, दिन मान बन चुके तथ्यों ( मील के पत्थर) को ध्यान में रखेबिना अपना भोगा हुआ लिखने में लगे हैं जो पूर्ण व सर्वकालिक सत्य नहीं होता। अतः साहित्य , पुरा संस्कृति व नवीनता के समन्वित भावों के प्राकट्य हेतु मैंने इस क्षेत्र में कदम रखा। कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित......
शनिवार, 15 अगस्त 2009
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