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रविवार, 16 अगस्त 2009

सृष्टि महाकाव्य--द्वितीय सर्ग -

उपसर्ग

नर ने भुला दिया प्रभु नर से,
ममता बंधन नेह समर्पण;
मानव का दुश्मन बन बैठा ,
अनियंत्रित वह अति-अभियंत्रण;
अति सुख अभिलाषा हित जिसको,
स्वयं उसी ने किया सृजन था।

निजी स्वार्थ के कारण मानव,
अति दोहन कर रहा प्रकृति का;
प्रतिदिन एक ही स्वर्ण अंड से,
उसका लालच नहीं सिमटता;
चीर कलेजा, स्वर्ण खजाना,
पाना चाहे एक साथ ही।

सर्वश्रेष्ठ है कौन?, व्यर्थ ,
इस द्वंद्व भाव में मानव उलझा;
भूल गया है मानव ख़ुद ही ,
सर्वश्रेष्ठ कृति है , ईश्वर की ।
सर्वश्रेष्ठ, क्यों कोई भी हो ,
श्रेष्ठ क्यों न हों, भला सभी जन।

पहले सभी श्रेष्ठ बन जाएँ,
आपस के सब द्वंद्व मिटाकर;
द्वेष ,ईर्ष्या स्वार्थ भूलकर,
सबसे समता भाव निभाएं;
मन में भाव रमें जब उत्तम,
प्रेम भाव का हो विकास तब।

जन संख्या के अभिवर्धन से,
अनियंत्रित यांत्रिकी करण से;
भार धरा पर बढ़ता जाता,
समय-सुनामी की चेतावनि,
समझ न पाये ,प्रलय सुनिश्चित।

जग की इस अशांति क्रंदन का,
लालच लोभ मोह बंधन का;
भ्रष्ट- पतित सत्ता गठबंधन,
यह सब क्यों? इस यक्ष प्रश्न(१) का,
एक यही उत्तर , सीधा सा,
भूल गया नर आज स्वयं को।

क्यों मानव ने भुला दिया है,
वह ईश्वर का स्वयं अंश है;
मुझमें तुझमें शत्रु मित्र में;
ब्रह्म समाया कण-कण में वह|
और स्वयं भी वही ब्रह्म है,
फ़िर क्या अपना और पराया।

सोच हुई है सीमित उसकी,
सोच पारहा सिर्फ़ स्वयं तक;
त्याग, प्रेम उपकार-भावना,
परदुख,परहित,उच्चभाव सब ;
हुए तिरोहित ,सीमित है वह,
रोटी कपडा औ मकान तक।

कारण-कार्य,ब्रह्म औ माया,(२)
सद-नासद(3) पर साया किसका;
दर्शन और संसार प्रकृति के ,
भाव नहीं अब उठते मन में;
अन्धकार- अज्ञान- में डूबा,
भूल गया मानव ईश्वर को।

सभी समझलें यही तथ्य यदि,
हम एक ब्रिक्ष के ही फल हैं;
वह एक आत्म सत्ता, सबके,
उत्थान-पतन का कारण है;
जिसका भी बुरा करें चाहें,
वह लौट हमीं को मिलना है।

हम कौन?,कहाँ से आए है?
और कहाँ चले जाते हैं सब?
यह जगत-पसारा कैसे,क्यों?
और कौन? समेटे जाता है।
निज को,जग को यदि जानेंगे,
तब मानेंगे, समता भाव।

तब नर,नर से करे समन्वय ,
आपस के भावों का अन्वय;
विश्व बंधुत्व की अज़स्र धारा;
प्रभु शीतल करदे सारा जग,
सारा हो व्यापार सत्य का,
सुंदर, शिव हो सब संसार ॥

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{ (१)=ज्वलंत समस्या का प्रश्न ; (२)=वेदान्त दर्शन का द्वैत वाद -ब्रह्म व माया, दो सृजक-संचालक शक्तियां हैं; (३)=ईश्वर व प्रकृति -हैं भी और नहीं भी ( नासदीय सूक्त -ऋग्वेद )





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