saahityshyamसाहित्य श्याम

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शनिवार, 1 अगस्त 2009

काव्य-दूत ---आगे

बिंदिया

तुम जो घबराकर ,
हुई रक्ताभ जब ;
तेरा वो चेहरा ,
अभी तक याद है ।
धत , 'यू बदमाश '
कहकर दौड़कर ;
मुझको तेरा -
भाग जाना याद है ।
प्रति दिवस की तरह ही
उस रोज़ भी ;
उस झरोखे पर ही ,
तुम मौजूद थीं ;
और छत पर
उस सुहानी शाम को,
डूब कर पुस्तक में
मैं तल्लीन था।
छूट करके वो ,
तुम्हारे हाथ से;
छोड़ दी थी या,
तुम्ही ने आप से ;
प्यारी सी डिबिया
जिसे तुमने पुनः ;
सौंप देने को
कहा था नाज़ से।
खोल कर मैंने ,
तुम्हारे भाल पर;
एक बिंदिया जब ,
सजा दी प्यार से ।
तब तुनक कर
भाग जाना याद है;
और मुड़कर
मुस्कुराना याद है ॥


मीरा

जब-जब इन गलियों से गुजरूँ,
तब तुम बहुत याद आती हो।
दरवाजे के पास पहुंचकर ,
मुड़कर अक्सर मुस्काती हो ।

जोगन बनकर थाल सजाकर ,
जब-जब तुम मन्दिर जाती हो।
सचमुच की मीरा लगती हो,
वीणा पर तुम जब गाती हो।

मेरे ख्यालों में आकरके ,
अब भी मुझको भरमाती हो।
घर के अन्दर जाकरके तुम ,
पीछे मुड़कर मुस्काती हो।

तेरे गीतों की सरगम से ,
हे प्रिय मैं कवि बनपाया हूँ।
पर तुम तो बस इतना समझो ,
तेरे गीतों का साया हूँ।

तेरे ही संगीत हे प्रियवर !
मेरे गीत बना जाते हैं।
तेरी यादें तेरे सपने ,
नए नए स्वर दे जाते हैं।

मेरे मन मन्दिर में अक्सर ,
बनी मोहिनी तुम गाती हो।
सचमुच की मीरा लगती हो ,
सचमुच मीरा बन जाती हो॥


गावं की गोरी

गावं की गोरी
लम्बी लम्बी छोरी ।
इमली के तले
काली न गोरी।

पतिया की जात में,
झूमते गुब्बारे।
मिट्टी की गाडी ,
गड़ गड़ गड़ पुकारे।

इमली के कतारे
और आँख मिचोली।
सरसों के खेत की
वो अठखेली।

नील कंठ की दांई,
और श्यामा की बाँई ;
लेने को दौड़ना ,
खंदक हो या खाई।

गूंजती अमराइयां
नहर के किनारे।
सावन के गीत ,और-
वर्षा की फुहारें।

झमाझम बरसात में,
जी भर नहाती ।
खेतों की मेड़ों पर,
झूम झूम गाती।

सावन में जब कभी
कोकिल कहीं बोली।
बहुत याद आती हो,
प्यारी हमजोली॥

निडर

उस रात जब लाइब्रेरी के पास
मेंने कहा था -
'क्या तुम्हें डर नहीं लगता ?'
'क्या तुम्हें हास्टल छोड़ दूँ ।'
' डर की क्या बात है ';हाँ -
यदि तुम बार-बार यही कहते रहे तो-
मुझे डर है कि-
कहीं मैं डरने न लगूँ';
तुमने कहा था ।

मैं चाहता ही रहा कि ,
शायद तुम कभी डरने लगो ;
रात की गहराई से,
या रास्ते की तन्हाई से ।
पर तुम तो निडर ही रहीं ,
निष्ठुरता की तह तक ,निर्भीक ;
कि मैं स्वयं ही डर गया था
तुम्हारी इस निडरता से।
और अभी तक डरता हूँ मैं,कि-
अब कभी मुलाक़ात होगी या नहीं ;
और होगी तो ,
मैं क्या कहूंगा ,क्या पूछूंगा ;
शायद यही कि -
क्या अभी तक तुम वैसी ही हो ,
निडर और निर्भीक ;
और इसी बात से मैं डरता हूं
अभी तक॥
-----क्रमशः

2 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

ITNI LAJAWAAB RACHNAAYEN,....... PREM, ANURAAG KE ALHADPAN LYE.......

डा श्याम गुप्त ने कहा…

धन्यवाद नासवा जी....