बिंदिया
तुम जो घबराकर ,
हुई रक्ताभ जब ;
तेरा वो चेहरा ,
अभी तक याद है ।
धत , 'यू बदमाश '
कहकर दौड़कर ;
मुझको तेरा -
भाग जाना याद है ।
प्रति दिवस की तरह ही
उस रोज़ भी ;
उस झरोखे पर ही ,
तुम मौजूद थीं ;
और छत पर
उस सुहानी शाम को,
डूब कर पुस्तक में
मैं तल्लीन था।
छूट करके वो ,
तुम्हारे हाथ से;
छोड़ दी थी या,
तुम्ही ने आप से ;
प्यारी सी डिबिया
जिसे तुमने पुनः ;
सौंप देने को
कहा था नाज़ से।
खोल कर मैंने ,
तुम्हारे भाल पर;
एक बिंदिया जब ,
सजा दी प्यार से ।
तब तुनक कर
भाग जाना याद है;
और मुड़कर
मुस्कुराना याद है ॥
मीरा
जब-जब इन गलियों से गुजरूँ,
तब तुम बहुत याद आती हो।
दरवाजे के पास पहुंचकर ,
मुड़कर अक्सर मुस्काती हो ।
जोगन बनकर थाल सजाकर ,
जब-जब तुम मन्दिर जाती हो।
सचमुच की मीरा लगती हो,
वीणा पर तुम जब गाती हो।
मेरे ख्यालों में आकरके ,
अब भी मुझको भरमाती हो।
घर के अन्दर जाकरके तुम ,
पीछे मुड़कर मुस्काती हो।
तेरे गीतों की सरगम से ,
हे प्रिय मैं कवि बनपाया हूँ।
पर तुम तो बस इतना समझो ,
तेरे गीतों का साया हूँ।
तेरे ही संगीत हे प्रियवर !
मेरे गीत बना जाते हैं।
तेरी यादें तेरे सपने ,
नए नए स्वर दे जाते हैं।
मेरे मन मन्दिर में अक्सर ,
बनी मोहिनी तुम गाती हो।
सचमुच की मीरा लगती हो ,
सचमुच मीरा बन जाती हो॥
गावं की गोरी
गावं की गोरी
लम्बी लम्बी छोरी ।
इमली के तले
काली न गोरी।
पतिया की जात में,
झूमते गुब्बारे।
मिट्टी की गाडी ,
गड़ गड़ गड़ पुकारे।
इमली के कतारे
और आँख मिचोली।
सरसों के खेत की
वो अठखेली।
नील कंठ की दांई,
और श्यामा की बाँई ;
लेने को दौड़ना ,
खंदक हो या खाई।
गूंजती अमराइयां
नहर के किनारे।
सावन के गीत ,और-
वर्षा की फुहारें।
झमाझम बरसात में,
जी भर नहाती ।
खेतों की मेड़ों पर,
झूम झूम गाती।
सावन में जब कभी
कोकिल कहीं बोली।
बहुत याद आती हो,
प्यारी हमजोली॥
निडर
उस रात जब लाइब्रेरी के पास
मेंने कहा था -
'क्या तुम्हें डर नहीं लगता ?'
'क्या तुम्हें हास्टल छोड़ दूँ ।'
' डर की क्या बात है ';हाँ -
यदि तुम बार-बार यही कहते रहे तो-
मुझे डर है कि-
कहीं मैं डरने न लगूँ';
तुमने कहा था ।
मैं चाहता ही रहा कि ,
शायद तुम कभी डरने लगो ;
रात की गहराई से,
या रास्ते की तन्हाई से ।
पर तुम तो निडर ही रहीं ,
निष्ठुरता की तह तक ,निर्भीक ;
कि मैं स्वयं ही डर गया था
तुम्हारी इस निडरता से।
और अभी तक डरता हूँ मैं,कि-
अब कभी मुलाक़ात होगी या नहीं ;
और होगी तो ,
मैं क्या कहूंगा ,क्या पूछूंगा ;
शायद यही कि -
क्या अभी तक तुम वैसी ही हो ,
निडर और निर्भीक ;
और इसी बात से मैं डरता हूं
अभी तक॥
-----क्रमशः
साहित्य के नाम पर जाने क्या क्या लिखा जा रहा है रचनाकार चट्पटे, बिक्री योग्य, बाज़ारवाद के प्रभाव में कुछ भी लिख रहे हैं बिना यह देखे कि उसका समाज साहित्य कला , कविता पर क्या प्रभाव होगा। मूलतः कवि गण-विश्व सत्य, दिन मान बन चुके तथ्यों ( मील के पत्थर) को ध्यान में रखेबिना अपना भोगा हुआ लिखने में लगे हैं जो पूर्ण व सर्वकालिक सत्य नहीं होता। अतः साहित्य , पुरा संस्कृति व नवीनता के समन्वित भावों के प्राकट्य हेतु मैंने इस क्षेत्र में कदम रखा। कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित......
शनिवार, 1 अगस्त 2009
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2 टिप्पणियां:
ITNI LAJAWAAB RACHNAAYEN,....... PREM, ANURAAG KE ALHADPAN LYE.......
धन्यवाद नासवा जी....
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