पीछे मुड़कर
आज जब पीछे मुड़कर देखता हूँ,
और अब तक के जीवन को सहेजता हूँ ,
की क्या खोया,क्या पाया ।
लगता है, सब कुछ पाया ही पाया है ,
जीवन से,संसार से ।
प्यार,ईर्ष्या ,घृणा,द्वेष
मान-सम्मान ,सुख-दुःख,और-
संपत्ति-विपत्ति ।
विभिन्न सुस्वादु भोजन,और-
छत्तीस व्यंजनों की तरह है,
यह जीवन भी ; और-
खोने को था ही क्या अपना ,अपने पास ।
शरीर , विश्व के रज़ -कणों से प्राप्त ,
पंचतत्व की काया ।
मन, विश्व स्थित आचार-व्यवहार व-
कार्य-कलापों से धीरे-धीरे प्राप्त,महत तत्व।
बुद्धि, जीवन के खट्टे-मीठे -
संसकरणों का संग्रह।
प्राण, कालचक्र द्वारा प्रदत्त
एक काल संगणक ।
और आत्मा ,
'न हन्यते हन्यमाने शरीरे'
उसका क्या खोना क्या पाना,
उस अनंत की एक धरोहर।
सब कुछ दूसरों का ही तो है ,
हमारे पास,
दूसरों के लिए।
फ़िर में और तुम का क्या भेद,
पाने-खोने का संघर्ष ,
मेरा और तेरा का द्वंद्व -
रह ही कहाँ जाता है।
सब कुछ उसी का है,
उसी में समा जाता है ;
यह काल सबको निगला जाता है।
न व्यक्ति कुछ खोता है,
न व्यक्ति कुछ पाता है,
माटी का पुतला -
माटी में समा जाता है॥
साहित्य के नाम पर जाने क्या क्या लिखा जा रहा है रचनाकार चट्पटे, बिक्री योग्य, बाज़ारवाद के प्रभाव में कुछ भी लिख रहे हैं बिना यह देखे कि उसका समाज साहित्य कला , कविता पर क्या प्रभाव होगा। मूलतः कवि गण-विश्व सत्य, दिन मान बन चुके तथ्यों ( मील के पत्थर) को ध्यान में रखेबिना अपना भोगा हुआ लिखने में लगे हैं जो पूर्ण व सर्वकालिक सत्य नहीं होता। अतः साहित्य , पुरा संस्कृति व नवीनता के समन्वित भावों के प्राकट्य हेतु मैंने इस क्षेत्र में कदम रखा। कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित......
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