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मंगलवार, 18 अगस्त 2009

सृष्टि महा काव्य ---आगे

तृतीय सर्ग- सद-नासद खंड

उस पूर्ण ब्रह्म,उस पूर्ण काम से,
पूर्ण जगत, होता विकसित;
उस पूर्ण ब्रह्म का कौन भाग ,
जग संरचना में, व्याप्त हुआ ?
क्या शेष बचा ,जाने न कोई;
वह शेष भी सदा पूर्ण रहता है।

वह नित्य प्रकृति ,वह जीवात्मा,
उस सद-नासद में निहित रहें;
हों सृष्टि-भाव,तब सद होते ,
और लय में हों लीन उसी में ।
यह चक्र ,सृष्टि१-लय२ नियमित है,
इच्छानुसार उस पर-ब्रह्म के ।

इच्छा करता है जब लय की ,
वे देव,प्रकृति,गुण,रूप सभी ;
लय हो जाते अपःतत्व३ में,
पूर्ण सिन्धु उस महाकाश४ में ।
लय होता जो पूर्ण-ब्रह्म में,
फ़िर भी ब्रह्म पूर्ण रहता है।
-----टोटल १२ छंद

चतुर्थ --संकल्प खंड --
६।
कर्म रूप में भोग हेतुओर,
मुक्ति हेतु,उस जीवात्मा के ;
आत्म बोध से वह परात्पर ,
या अक्रिय-असद चेतन सत्ता ,
अव्यक्त,स्वयम्भू या परभू,ने-
किया भाव संकल्प सृष्टि हित।

-९-
मनः रेत संकल्प कर्म जो,
प्रथम काम संकल्प जगत का;
सृष्टि प्रवृत्ति की ईषत इच्छा,
'एको अहम् बहुस्याम रूप में,
महाकाश में हुई प्रतिध्वनित,
हिरण्य -गर्भ के सगुण भाव से।

-१२-
स्पंदन से साम्य कणों के ,
अक्रिय अपः होगया सक्रिय सत्,
हलचल से और द्वंद्व भाव से ,
सक्रिय कणों के बनी भूमिका ;
सृष्टि कणों के उत्पादन की,
महाकाश की उस अशांति में।
---कुल १२ छंद.

पंचम सर्ग -अशांति खंड
-१-
परम व्योम की इस अशांति से
द्वंद्व भाव कण-कण में उभरा,
हलचल से गति मिली कणों को ;
अपः तत्व में सामी जगत के,
गति से आहत नाद बने फ़िर ,
शब्द,वायु ऊर्जा ,जल और मन।

-६-
सतत संयोजन और विखंडन ,
रूप नाभिकीय ऊर्जा का जो ;
अंतरिक्ष में सौर-शक्ति बन,
नाम अदिति से दिति का पाया;
प्रकट रूप है जो पदार्थ की,
पूर्ण कार्य रूपी ऊर्जा का।

-१४-
शक्ति और इन भूत कणों के ,
संयोजन से बने जगत के,
सब पदार्थ और उनमें चेतन,
देव रूप में निहित होगया-
भाव तत्व बन , बनी भूमिका,
त्रिआयामी सृष्टि कणों की।

-२७-
कहता है विज्ञान,आदि में,
कहीं नहीं था कुछ भी स्थित।
एक महा विस्फोट हुआ था ,
अन्तरिक्ष में और बन गए,
सारे कम,प्रति कण प्रकाश कण ,
फ़िर सारा ब्रह्माण्ड बन गया।

-----कुल ३७ छंद.

षष्ठ खंड -ब्रह्माण्ड खंड
-२-
परा -शक्ति से परात्पर की,
प्रकट स्वयम्भू ,आदि शंभु थे;
अपरा शंभु संयोग हुआ जब ,
व्यक्त भाव महतत्व बन गया;
हुआ विभाजित व्यक्त पुरूष में,
एवं व्यक्त आदि माया में।
-५-
महा विष्णु और रमा संयोग से,
प्रकट हुए चिद बीज अनंत;
फैले थे जो परम व्योम में,
कण-कण में बन कर हेमांड ;
उस असीम के महा विष्णु के ,
रोम-रोम में बन ब्रह्माण्ड।

-----कुल१३ छंद.

सप्तम-ब्रह्मा प्रादुर्भाव एवं स्मरण खंड

-३-
ब्रह्मा धरकर रूप चतुर्मुख,
काल स्वरुप उस महाविष्णु का;
स्वर्ण कमल पर हुआ अवतरित,
और तभी से ब्रह्मा का दिन,
हुआ प्रभावी और समय की ,
नियमन-गणना हुई तभी से।

११-
वाणी के उन ज्ञान स्वरों से,
विद्या रासायनिक संयोग की ;
बिखरे कण नियमित करने की ,
सृष्टि सृजन की पुरा प्रक्रिया ,
का स्मरण हुआ ब्रह्मा को,
रचने लगे सृष्टि हर्षित मन।

----कुल ११ छंद.

अष्टम खंड -सृष्टि खंड

-२-
आद्य-शक्ति के चार चरण युत,
ब्रह्मा ने सब सृष्टि रचाई,
प्रथम चरण में भाव सावित्री,
जो था मूल पदार्थ अचेतन;
देव,मनुज,प्राणी क्रमशः थे-
तीन चरण चेतन सत्ता माय।

-१९-
तपः साधनायुक्त भाव में
ब्रह्मा ने मानव रच डाला;
क्रियाशील अति विकसित था जो,
तीन गुणों युत ,ज्ञान कर्म युत,
साधाशील सदा लक्ष्योन्मुख ,
अतः हुआ दुःख का सागर भी।

-२८-
नव-विज्ञान यही कहता है,
पहले जड़ प्रकृति बनी सब।
मानव का जो आज रूप है,
क्रमिक विकास हुआ बानर से।
जल में प्रथम जीव आयाथा ,
धूम्रकेतु संग अन्तरिक्ष से।

-३१-
श्रुति दर्शन अध्यात्म बताता,
चेतन रहता सदा उपस्थित ;
इच्छा रूप में पर-ब्रह्म की;
मूल चेतना सभी कणों की,
जो गति बनाकर करे सर्जना,
स्वयं उपस्थित हो कण-कण में।
-----कुल ३२ छंद

नवम-सर्ग--प्रजा खंड

--८--
आधा नर,आधा नारी का ,
रूप लिए थे रुद्र-देव जो,
अर्ध नारीश्वर रूप स्वयम्भू,
पुरूष रूप थे लिंग महेश्वर,
नारी माया-योनी स्वरूपा;
आदि योग मायया जो शंभु की।


--११--
मनु-शतरूपा में स्फुरणा,
काम भाव की हुई पल्लवित,
लिंग महेश्वर और माया के,
स्वयं समाहित हो जाने से,
काम सृष्टि का प्रथम बार तब,
आविर्भाव होगया जगत में।
------कुल १३ छंद.


दशम सर्ग-माहेश्वरी प्रजा खंड-

-१-
मनु शतरूपा प्रथम युगल थे,
सूत्रधार मानवी सृष्टि के;
नियमित मानव उत्पत्ति के,
मनु, प्रथम मानव कहलाये,
मनुज कहाए सब मनु बन्शज,
सर्वोत्तम कृति रचयिता की।

- ६-
ना,री भाव नहीं था जब तक,
फलित सृष्टि की स्वतः प्रक्रिया;
कैसे भला फलित हो पाती ,
आद्य -शक्ति का हुआ अवतरण ;
हुआ समन्वय नर-नारी का ,
पूर्ण हुआ क्रम सृष्टि -यज्ञ का।

-८-
प्रथम मैथुनी जन्म सृष्टि में,
प्रसूति के गर्भ से हाया था;
अतः गर्भ को धारण करना,
नारी का, प्रसूति कहलाया;
और जन्म देने का उपक्रम,
गर्भाधान, प्रसव कहलाया।
----कुल ९ छंद

एकादश सर्ग-उपसंहार
-१२-
नहीं महत्ता इसकी है ,कि-
ईश्वर ने यह जगत बनाया,
अथवा वैज्ञानिक भाषा में,
आदि-अंत बिन ,स्वयं रच गया;
अथवा ईश्वर की सत्ता है,
अथवा ईश्वर कहीं नही है।

-१३-
यदि मानव ख़ुद ही करता है,
और स्वयं ही भाग्य विधाता ;
इसी सोच का पोषण हो यदि,
अहं भाव जाग्रत हो जाता;
मानव संभ्रम में घिर जाता,
और पतन की राह यही है।

१४-
पर ईश्वर हैं जगत नियंता ,
कोई है, अपने ऊपर भी,
रहे तिरोहित अहं भाव भी ,
सत्व गुणों से युत हो मानव,
सत्यम,शिवम्,भाव अपनाता,
सारा जग सुंदर होजाता॥

----समाप्त--

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