शाश्वत
मृत्यु ,तुम कितनी निष्ठुर हो ,
छीन लेती हो पल भर में ,
जीव से जीवन ,और-
आत्मा से शरीर।
तुम शाश्वत हो ,
शाश्वत है जीवन भी ;
फ़िर भी ,जीवन नाशवान है ,
क्षण-भंगुर है; और-
तुम हो अविनाशी ,
या सर्वनाशी।
तुम परमात्म रूप हो ,जिसमें -
जीव समाहित हो जाता है,
चल पड़ने के लिए ,पुनः-
अपनी शाश्वत एवं अनंत यात्रा के,
अगले पड़ाव की और।
हे परमात्म रूप ! हे सुखदा!
तुम शाश्वत हो,महान हो,
अवश्यम्भावी हो;
फ़िर भी , मृत्यु !
तुम कितनी निष्ठुर हो,
तुम कितनी निष्ठुर हो॥
साहित्य के नाम पर जाने क्या क्या लिखा जा रहा है रचनाकार चट्पटे, बिक्री योग्य, बाज़ारवाद के प्रभाव में कुछ भी लिख रहे हैं बिना यह देखे कि उसका समाज साहित्य कला , कविता पर क्या प्रभाव होगा। मूलतः कवि गण-विश्व सत्य, दिन मान बन चुके तथ्यों ( मील के पत्थर) को ध्यान में रखेबिना अपना भोगा हुआ लिखने में लगे हैं जो पूर्ण व सर्वकालिक सत्य नहीं होता। अतः साहित्य , पुरा संस्कृति व नवीनता के समन्वित भावों के प्राकट्य हेतु मैंने इस क्षेत्र में कदम रखा। कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित......
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