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बुधवार, 12 अगस्त 2009

काव्य-दूत आगे--

शाश्वत

मृत्यु ,तुम कितनी निष्ठुर हो ,
छीन लेती हो पल भर में ,
जीव से जीवन ,और-
आत्मा से शरीर।

तुम शाश्वत हो ,
शाश्वत है जीवन भी ;
फ़िर भी ,जीवन नाशवान है ,
क्षण-भंगुर है; और-
तुम हो अविनाशी ,
या सर्वनाशी।

तुम परमात्म रूप हो ,जिसमें -
जीव समाहित हो जाता है,
चल पड़ने के लिए ,पुनः-
अपनी शाश्वत एवं अनंत यात्रा के,
अगले पड़ाव की और।

हे परमात्म रूप ! हे सुखदा!
तुम शाश्वत हो,महान हो,
अवश्यम्भावी हो;
फ़िर भी , मृत्यु !
तुम कितनी निष्ठुर हो,
तुम कितनी निष्ठुर हो॥

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