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रविवार, 9 अगस्त 2009

काव्य-दूत --गत से आगे .....

आहट

प्रिये! ,पुनः इस -
स्टेशन पर उतरते ही लगा ,
जैसे तुम आज भी मेरे साथ-साथ हो|
लजाती हुई,
सकुचाती हुई
नव वधु की तरह
उसी तरह।

यहाँ के प्रत्येक कण कण में ,
तुम्हारे इज़हार की ,
तुम्हारे प्यार की ,खुशबू -
अभी भी बसी हुई है।

सड़क ,हजार,बाज़ार,क्लव,सभी जगह,
तुम्हारे कदमों की आहट ,
अभी भी सजी हुई है;
अनश्वर,
अनहद नाद की तरह।

शायद इसीलिये कहा है -
शब्द अनंत है ,
अमर है,
शब्द ही ईश्वर है॥


महक

प्रिये! अधिकारी विश्राम -ग्रह में ,
जब स्नान-ग्रह से निकलता हूँ ;तो-
अचानक तुम्हारे यौवन की महक ,
बिखर उठती है,सब और-
मेरे चारों ओर।

कभी दो चोटी किए ,
राजस्थानी प्रिंट की साडी में,
सद्यः स्नाता ,कान्तिमयी
मंद-मंद मुस्कुराती हुई ,तुम-
मौन आमंत्रण दे रही हो।

कभी लान में
पेड़ की छाया में,
पीठ पर कुंतल लहराए
कज़रारे नयनों की डोर से
मुझे खींच रही हो।

कितनी प्यारी होतीं हैं
ये यादें भी ;
काल के पार जा सकने वाले ,
मन की तीव्र गति का
प्रत्यक्ष प्रमाण ;
जो पहुंचा देती हैं ,हमें -
पल में ही ,
मन चाही जगह,
मन चाहे काल में
बिना प्रयास ही
अनायास ही ॥

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