आहट
प्रिये! ,पुनः इस -
स्टेशन पर उतरते ही लगा ,
जैसे तुम आज भी मेरे साथ-साथ हो|
लजाती हुई,
सकुचाती हुई
नव वधु की तरह
उसी तरह।
यहाँ के प्रत्येक कण कण में ,
तुम्हारे इज़हार की ,
तुम्हारे प्यार की ,खुशबू -
अभी भी बसी हुई है।
सड़क ,हजार,बाज़ार,क्लव,सभी जगह,
तुम्हारे कदमों की आहट ,
अभी भी सजी हुई है;
अनश्वर,
अनहद नाद की तरह।
शायद इसीलिये कहा है -
शब्द अनंत है ,
अमर है,
शब्द ही ईश्वर है॥
महक
प्रिये! अधिकारी विश्राम -ग्रह में ,
जब स्नान-ग्रह से निकलता हूँ ;तो-
अचानक तुम्हारे यौवन की महक ,
बिखर उठती है,सब और-
मेरे चारों ओर।
कभी दो चोटी किए ,
राजस्थानी प्रिंट की साडी में,
सद्यः स्नाता ,कान्तिमयी
मंद-मंद मुस्कुराती हुई ,तुम-
मौन आमंत्रण दे रही हो।
कभी लान में
पेड़ की छाया में,
पीठ पर कुंतल लहराए
कज़रारे नयनों की डोर से
मुझे खींच रही हो।
कितनी प्यारी होतीं हैं
ये यादें भी ;
काल के पार जा सकने वाले ,
मन की तीव्र गति का
प्रत्यक्ष प्रमाण ;
जो पहुंचा देती हैं ,हमें -
पल में ही ,
मन चाही जगह,
मन चाहे काल में
बिना प्रयास ही
अनायास ही ॥
साहित्य के नाम पर जाने क्या क्या लिखा जा रहा है रचनाकार चट्पटे, बिक्री योग्य, बाज़ारवाद के प्रभाव में कुछ भी लिख रहे हैं बिना यह देखे कि उसका समाज साहित्य कला , कविता पर क्या प्रभाव होगा। मूलतः कवि गण-विश्व सत्य, दिन मान बन चुके तथ्यों ( मील के पत्थर) को ध्यान में रखेबिना अपना भोगा हुआ लिखने में लगे हैं जो पूर्ण व सर्वकालिक सत्य नहीं होता। अतः साहित्य , पुरा संस्कृति व नवीनता के समन्वित भावों के प्राकट्य हेतु मैंने इस क्षेत्र में कदम रखा। कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित......
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