काव्य-दूत---द्वितीय खन्ड---
"तुम क्या जानो मैंने कितने गीत गढे,
इन सांसों की मधुर रागिनी पाने को ॥"
वह तो तुम थीं
मैने सपनों में देखी थी,
इक मधुर सलोनी सी काया।
शरमा जाये वो नील-गगन,
रुक जाये चलता श्यामल घन।
थम जाये सुरभित मस्त पवन,
जो दिख जाये उसकी छाया।
चंचल जैसे गति लहरों की,
गम्भीर कि जैसे सागर हो।
है छलकती ऐसे ज्यों ,
अधभरी छलकती गागर हो।
कुछ कहदो तो शरमा जाये,
कुछ कह्दो तो गरमा जाये।
चंचल नयनों में जो कोई,
आंखें डाले भरमा जाये ।
गज गामिनि चलती है ऐसे,
सावन का मन्द समीरण हो।
कुछ कहे तो लगता है जैसे,
कोकिल कहती सरगम स्वर हो।
अधखिले कमल लतिका जैसी,
अधरॊं की कलियां खिलीं हुई।
क्या इन्हें चूम लूं,यह कहते,
वह हो जाती है छुई-मुई ।
मैं यही सोचता था अब तक,
ये कौन है इतना मान किये।
तुमको देखा मैने पाया,
यह तो तुम ही थीं मधुर प्रिये!!
तनहाइयां
प्रिये!
जने क्यों, तुम मुझसे दूर हो जाती हो;
बार-बार,
हर बार ?
जाने क्यों,
तनहाइयां घेर लेतीं हैं मुझे,
बार-बार, हर बार ?
यद्यपि, तनहाइयां,
जीवन की रोमांचक अनुभूतियां हैं;
जो संयोग की एकरसता से डूबे मन को,
विप्रलम्भ रूपी अनल से,
आप्लावित करतीं हैं;
और जन्म देती हैं-
"मेघदूत" को ।
ये कसौटी हैं,
प्रेम रूपी धार को तेज करने की।
क्योंकि, दूरियां-
दिलों को करीब लाती हैं;
और लातीं हैं,इन्तज़ार के बाद
मिलन की अनूठी अनुभूति को ।
फ़िर भी जब इस वन-प्रान्तर में
’सन्ध्या सुन्दरी’
"दिवस के अवसान पर हाथ मलती है"
तो सहसा ख्याल आता ही है, कि-
जाने क्यों,
तुम मुझसे दूर होजाती हो;
बार-बार,
हर बार॥
तुम अद्भुत हो
प्रिये!
अधिकार,अनुभव और ग्यान,
से परिपूर्ण,
तुम्हारा गौरवमय,महिमा मंडित चेहरा,
जब देखता हूं;
और उसकी तेजोमयी दीप्ति,
व सौन्दर्यमयी अनुभूति को,
सहेज़ता हूं;
तो याद आता है वह दिन,
जब तुम थीं,
कांतिमयी,तेजोद्दीप्त
नवयौवन की गरमाहट से भरपूर,
किन्तु नव-कलिका सी,
अनुभवहीन सहमी हुई
लजीली गुडिया की तरह।
फ़िर, एक अभूझ पहेली की तरह,
हर बार,तुम्हारे उस
प्रतिपल,प्रति दिवद,मास,वर्ष-
के साथ बदलते हुए;
अधिक से अधिक,
महिमामंडित,कीर्तिदीप्त,सौन्दर्यमय
होते हुए रूप को,देखकर-
अभिभूत होता रहा हूं ।
सौन्दर्य की कितनी विधायें हैं,
कितने रूप हैं,
कितनी क्रतियां हैं-
तुम्हारे अंतर में!
जो बार-बार,हर बार,
प्रतिपल,दिवस,मास,वर्ष
हर्षानुभूति से उद्वेलित करते रहे हैं;
मन को,
मेरे मन को।
हे !सखि,प्रेयसि,प्रियतमा,
पत्नी,देवी शक्ति,कामिनी!
तुम अद्भुत हो!
तुम अद्भुत हो!!
साहित्य के नाम पर जाने क्या क्या लिखा जा रहा है रचनाकार चट्पटे, बिक्री योग्य, बाज़ारवाद के प्रभाव में कुछ भी लिख रहे हैं बिना यह देखे कि उसका समाज साहित्य कला , कविता पर क्या प्रभाव होगा। मूलतः कवि गण-विश्व सत्य, दिन मान बन चुके तथ्यों ( मील के पत्थर) को ध्यान में रखेबिना अपना भोगा हुआ लिखने में लगे हैं जो पूर्ण व सर्वकालिक सत्य नहीं होता। अतः साहित्य , पुरा संस्कृति व नवीनता के समन्वित भावों के प्राकट्य हेतु मैंने इस क्षेत्र में कदम रखा। कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित......
3 टिप्पणियां:
Prem ras se sarabor kavitaayen hain, achchha laga inhe padhna.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }</a
bahut hi sundar rachana. vadhai ho
dhanyabaad jo aap tashareef laye.
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