अन्नपूर्णा
भोजन ब्रह्म है,
और जीव ,ह्ज़ार मुखों से ग्रहण करने वाला
वैश्वानर है,जगत है।
और हज़ार हाथों से बांटने वाली,
अन्नपूर्णा-
माया है ,उसी ब्रह्म की ।
हां,ऐसा ही लगता है,तब-
जब तुम,तवा,चकला,चूल्हा-
रोटी,कलछा और कुकर पर,
एक ही समय में ध्यान दे लेती हो;
और, मुन्ना,मुन्नी,पापा व अन्य को,
परोस भी देती हो,
एक साथ,गर्मा गर्म ,सुस्वादु भोजन;
जैसे अन्नपूर्णा-
हज़ार हाथों से
सारे विश्व को त्रप्त कर रही हो।
या कोई ग्यानरूपा,
हज़ार भावों से,
वैश्वानर को,चराचर को,
ब्रह्म का-
आस्वादन करा रही हो॥
दष्ठौन
पुत्री के जन्म दिन पर,
दष्ठौन, पार्टी!
कहा था आश्चर्य से
तुमने भी।
मैं जानता था,पर-
मन ही मन तुम खुश थीं,
हर्षिता, गर्विता ।
दर्पण में अपनी छवि देखकर,
हम सभी प्रसन्न होते हैं;
तो, अपनी प्रतिक्रिति देखकर,
कौन हर्षित नहीं होगा।
”पुत्र जन्म पर यह सवाल,
क्यों नहीं किया था तुमने?’
मैने भी पूछ लिया था,
अनायास ही।
सका उत्तर लोगों के पास तो था,
गलत या सही;
पर नहीं था-
तुम्हारे पास ही ।
प्रक्रति-पुरुष,
विद्या-अविद्या,
ईश्वर-माया,
शिव और शक्ति;
युग्म होने पर ही होती है पूर्ण-
यह संसार रूपी प्रक्रति।
अतः ग्रहस्थ रूपी संसार की,
पूर्णाहुति में ही है,
यह पार्टी ॥
स्वर्ग
घुसते ही घर में कानों में,
सरगम स्वर में सुरताल बही।
खिडकी के एक झरोखे से,
झन-झन पायल झनकार रही।
कमरे में झांका तो देखा,
थी राजकुमारी नाच रही।
बैठक के एक किनारे से,
सप्तम कानों में टकराया।
झांझर,तबला,मटका,गिटार,
का मिला-जुला सा स्वर आया।
देखा तो कुंवर-कन्हैया जी,
अपनी ही धुन में खेल रहे ।
चिमटा,थाली,चम्मच,गिलास,
पर वे रियाज़ थे पेल रहे ।
लो अहा! किचन से ये कैसी,
खुश्बू सी तिरती आई है!
साथ-साथ उनके स्वर की,
म्रिदु वीणा सी लहराई है।
कोई पूछे मुझसे आकर,
इस धरती पर स्वर्ग कहीं है?
यह सुनकर लगता है एसा,
स्वर्ग यहीं है,स्वर्ग यहीं है॥
छम छम पायल
वह आई आंधी के जैसी,
छम छम छम करती इठलाती।
विजय-गर्व से दीप्त,प्रफ़ुल्लित,
चेहरे से खुशियां झलकाती ।
स्वेद बिन्दु छलके ललाट पर,
रक्तिम आभा सी लहराती ।
वह आई आंधी के जैसी,
छम छम छम करती इठलाती।
गर्दन में बाहें लटकाकर,
झूल गयी मेरे कांधे पर।
मैं झल्लाया नाराज़ी से,
बोला,’क्या करती हो देखो’।
पैर झुलाकर,फ़िर मुस्काकर,
बोली वह कुछ-कुछ शर्माकर-
’मम्मी ने यह दिलवाई है
पापा मेरी पायल देखो’॥
साहित्य के नाम पर जाने क्या क्या लिखा जा रहा है रचनाकार चट्पटे, बिक्री योग्य, बाज़ारवाद के प्रभाव में कुछ भी लिख रहे हैं बिना यह देखे कि उसका समाज साहित्य कला , कविता पर क्या प्रभाव होगा। मूलतः कवि गण-विश्व सत्य, दिन मान बन चुके तथ्यों ( मील के पत्थर) को ध्यान में रखेबिना अपना भोगा हुआ लिखने में लगे हैं जो पूर्ण व सर्वकालिक सत्य नहीं होता। अतः साहित्य , पुरा संस्कृति व नवीनता के समन्वित भावों के प्राकट्य हेतु मैंने इस क्षेत्र में कदम रखा। कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित......
शुक्रवार, 7 अगस्त 2009
काव्य -दूत--द्वितीय खन्ड--आगे....
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