कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित
डा श्याम गुप्त के अभिनन्दन ग्रन्थ 'अमृत कलश का लोकार्पण २२-०२-२०२० को हुआ |---तुरंत लौकडाउन के कारण कुछ विज्ञ लोगों तक नहीं पहुँच पा रही है अतः --यहाँ इसे क्रमिक पोस्टों में प्रस्तुत किया जाएगा | प्रस्तुत है - -पंचम पुष्प --आलेख----
आलेख १. डॉ. श्याम गुप्त की कृति “ईशोपनिषद् का काव्य-भावानुवाद” का अनुशीलन---डा योगेश --
डा श्याम गुप्त के अभिनन्दन ग्रन्थ 'अमृत कलश का लोकार्पण २२-०२-२०२० को हुआ |---तुरंत लौकडाउन के कारण कुछ विज्ञ लोगों तक नहीं पहुँच पा रही है अतः --यहाँ इसे क्रमिक पोस्टों में प्रस्तुत किया जाएगा | प्रस्तुत है - -पंचम पुष्प --आलेख----
आलेख १. डॉ. श्याम गुप्त की कृति “ईशोपनिषद् का काव्य-भावानुवाद” का अनुशीलन---डा योगेश --
नवसृजन (साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था)
पंजी.सं.:-1524
स्थापना: 24 अगस्त 2008, दिन-रविवार (श्रीकृष्ण जन्माष्टमी)
संरक्षक: डॉ.रंगनाथ मिश्र ’सत्य’ ..
अध्यक्ष: डॉ. योगेश..
महासचिव:देवेश द्विवेदी ’देवेश ’...
मोब. 9335990435 :
9455000640 : 9236689833
डॉ. श्याम गुप्त की कृति “ईशोपनिषद् का काव्य-भावानुवाद” का अनुशीलन
श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है,
‘वेदोऽखिलो धर्ममूलम् ...|
वेद को विश्व ज्ञान का आदि-स्रोत कहा गया है। भारतीय ऋषि-मुनियों ने वेदों के माध्यम से एक ऐसी सुसंस्कृत जीवन शैली की आधारशिला रखी जिसमें समग्र मानव-जीवन धर्म और आध्यात्मिकता के प्रकाश से आलोकित हो,
मनुष्य का समग्र एवं सर्वतोमुखी विकास सम्भव हो सके। उपनिषद् वेदों का अन्तिम भाग हैं। उपनिषद् वेदों के सार को अभिव्यक्त करते हैं। यह ऋषि-मुनियों की
ऋतम्भरा-प्रज्ञा से प्रस्फुटित तत्व-ज्ञान है जो समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए अमूल्य निधि है। समस्त-उपनिषदों का सार बृहदारण्यकोपनिषद् की इस प्रार्थनामें अन्तर्निहित हैं-
असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्मा अमृतगमय।
----अर्थात्,
हे! ईश्वर हमें असत् से सत् की ओर ले चलो,
अंधकार से प्रकाश की ओर
ले चलो,
मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो।
उपनिषद् अन्तश्चेतना की ऊर्ध्वगामी विकास की यात्रा पर ले चलने का उपक्रम करती हैं। डा.राधाकृष्णन कहते हैं कि,
‘‘उपनिषदोंमें जहाँ इस जगत् के सैद्धान्तिक स्पष्टीकरण के लिए एक आध्यात्मिक जिज्ञासा है वहाँ मुक्ति की उत्कट अभिलाषा भी है। इनके विचार न केवल हमारे मन को प्रकाश देते है बल्कि हमारी आत्मा को भी विकसित करते हैं।’’
समस्त उपनिषद
विश्व के रहस्य के साथ-साथ मानवीय जीवन के रहस्य की सैद्धान्तिक व्याख्या है। उपनिषदों की संख्या 108 है जिनमें 11 मुख्य हैं जिन पर आदि-शंकराचार्य ने टीका की हैं।
ईशावास्योपनिषद् इन 11 उपनिषदों में से एक है। यह उपनिषद् शुक्ल यजुर्वेद के अन्तर्गत आता है। यह सबसे छोटा उपनिषद् है जिसमें केवल 18 मन्त्र है। मन्त्रों की संख्या की दृष्टि से भले ही यह उपनिषद् सबसे छोटा हो किन्तु इस उपनिषद् को समस्त उपनिषदों के आधार रूप में मान्यता प्राप्त है। इस उपनिषद् के प्रथम श्लोक का आरम्भ ईशावास्यमिदं होने के कारण इसका नाम
ईशावास्योपनिषद् रखा गया है।
सुकवि डॉ श्याम गुप्त जी ने ईशावास्योपनिषद् का काव्य भावानुवाद कर
हिन्दी साहित्य के गीत-काव्य को समृद्ध करने का श्लाघ्य कर्म किया है। सभी उपनिषद,
दर्शन के गूढ़ तत्वों की रहस्यात्मक अभिव्यक्तियाँ हैं। जिनका अनुवाद अथवा
टीका सामान्यतया कठिन दार्शनिक शब्दों में नीरस ढंग से उपलब्ध है। डॉ गुप्त
जी ने काव्यभावानुवाद द्वारा दर्शन की मूल भावना को अक्षुण्ण रखते हुए उसे
दर्शन की वक्रोक्ति से बाहर निकाल कर काव्य की रसमय विधा के द्वारा सरल शब्दों में
प्रस्तुत किया है। इस प्रक्रिया में वे स्वयं भक्ति के रस में डूबे प्रतीत होते हैं।
कृति को वन्दना में वे कहते हैं-श्याम,श्याम की कृपा मिले तो सफल होय नर जीवन।
वन्दना की यह रसधारा सूरदास,
मीरा, चैतन्य महाप्रभु के रससिक्त भक्ति का स्मरण कराती है।
डॉ.श्याम गुप्त जी ने कृति के आरम्भ में ‘‘ईशोपनिषद् के काव्यभावानुवाद के कथ्य’
के अन्तर्गत ईशावास्योपनिषद् के सभी 18 मन्त्रों का
उनके विभागों सहित वर्णन करते हुए,
संस्कृत से
२.
हिन्दी में भावानुवाद प्रस्तुत किया है। भावानुवाद करते समय मन्त्र में उल्लिखित तात्विक शब्दों का अर्थ व तात्पर्य का यथोचित वर्णन किया है तथा दार्शनिक व सांसारिक महत्व का उचित निदर्शन किया है। इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण तथ्यों को रेखांकित भी करते हैं। उदाहरण के लिए तृतीय मंत्र का अनुवाद करने के पश्चात् कर्म के तत्व को स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
कर्म लिपट ही पाते हैं कब,
उससे जो त्यागी अलिप्त है |
लिप्सा तृष्णा उसे बाँधती,
अपकर्मों में नर जो लिप्त है |
इसी भांति ईश्वर,
ब्रह्म, ज्ञान, विद्या, अविद्या, प्रकृति आदि तत्वों की विस्तार
पूर्वक चर्चा करते हैं,
उसके दार्शनिक महत्व का उल्लेख करते हुए जीवन से उसके
सम्बन्धों को भी रेखांकित करते हैं,साथ ही अपनी गजलों के उद्धरण भी देते हैं।
वेदों में स्वीकृत कर्मकाण्डों की प्रधानता का उपनिषद् काल में लोप हो जाता है। यज्ञों का स्थान भी गौण हो जाता है। ‘‘ईशावास्यम इदं सर्वम्’’- सबकुछ ईश्वर का है तब ‘अहंकार’
के अतिरिक्त किसी और चीज के समर्पण की आवश्यकता ही नहीं रहती। यह शुद्ध दार्शनिक उद्घोषणा है,
ज्ञान मीमांसा का विषय है किन्तु डॉ. श्याम गुप्त जी इसे भी भक्ति से संयुक्त कर देते हैं-
भक्ति योग का मार्ग यही है
श्रद्धा भक्ति आस्था भाये।
कुछ नहीं मेरा, सब, सब जग का
समष्टि हित निज कर्म सजाये।
उपनिषदें प्रकृतिवाद के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करतीं। जगत का स्वयं चलायमान होना जिसका कोई बौद्धिक,
चेतन लक्ष्य नहीं है,
ऐसा मानना उचित नहीं है। ‘ब्रह्य’
जो समस्त जड़-चेतना का मूल आधार है-जिस पर सब कुछ निर्भर है जिसकी ओर सभी सभी सत्ताएँ उड़कर आना चाहती हैं। डॉ.श्याम गुप्त पंचम-मंत्र का
भावानुवाद करते हुए कहते हैं-
सबका धारक सबमें धारित,
निष्कंप सूक्ष्म बहु वेगवान |
परिमिति में रहकर अपरिमेय,
वह एक ब्रह्म ही है महान |-- पृ. 41
उपनिषदों में विद्या और अविद्या दोनों शब्दों का प्रयोग ‘ज्ञान’
के लिए ही किया गया है
| अविद्या अज्ञान नहीं है प्रत्युत यह लौकिक अथवा सांसारिक तत्वों का ज्ञान है, सांसारिक ज्ञान जिसका सम्बन्ध पदार्थनिष्ठ तत्वों से है, जबकि विद्या का सम्बन्ध अलौकिक अथवा परमार्थ जगत् के ज्ञान से है। डॉ.राधाकृष्णन् विद्या व अविद्या केअर्थ को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- ‘‘विद्या और अविद्या दोनों ज्ञान के रूप हैं और व्यक्त जगत् से सम्बन्ध रखतें हैं। विद्या उन तत्त्वों के सामंजस्य और परस्पर सम्बन्धों पर जोर देती है जिनसे की जगत् बना है। अविद्या परस्पर-स्वतंत्रता, पृथक्ता और संघर्ष पर जोर देती है। विद्या अनुभव से भिन्न है। अनुभव को श्रुति
में विशुद्ध और प्रत्यक्ष बौद्धिक अन्तर्दृष्टि कहा गया है।’’
परमसत्ता का ज्ञान विशुद्ध प्रत्यक्ष अनुभूति है। वस्तुतः परमसत्ता के ज्ञान के लिए हमें विद्या और अविद्या दोनों को स्वीकार कर परमसत्ता का साक्षत् एकात्म अनुभव करना होता है। डॉ.गुप्त जी विद्या और अविद्या को कर्म से संयुक्त करते हुए कहते हैं कि-ईशावास्योपनिषद् के ऋषि कहते हैं- ‘हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं
मुखं ।’ अर्थात् सत्य
(आदित्य मण्डलस्थ ब्रह्म)का मुख स्वर्ण के ज्योतिर्मय पात्र से ढका हुआ है। सामान्य दृष्टि के लिए यह बात सहज ही विरोधाभाषी है कि सत्य को ज्योतिर्यमयता कैसे ढक सकती उसकी दृष्टि में (सत्य)प्रकाश को अंधकार ने ढक रखा है। किन्तु ऐसा है नहीं परमसत्य का बाह्य आवरण प्रकाश से ही घिरा हुआ है। डॉ.श्याम गुप्त जी ने
३.
जिस अनुवाद के आधार पर यहाँ पर हिरण्य
पात्रेण शब्द का अर्थ विभिन्न सांसारिक प्रलोभनो से लिया है,
वो उचित नहीं है। यह अंतिम प्रार्थना है प्रभु से-हे प्रभु! हटा लीजिये इस प्रकाश के आवरण को भी जिससे में आपके सत्य मुख को देख सकूँ।
एक साधक जब साधना के अंतिम सोपान पर
पहुँचता है तब उसके और परमसत्य के मध्य अंतिम बाधा यह परम प्रकाश ही होता है|
वर्तमान समय मानव जीवन जो कि विज्ञान के कारण जन्मी अतिबौद्धिकता पर आधारित जीवन-पद्धति का अनुसरण कर जीवन को केवल भोग लिए ही उपादेय मानती हों तब डॉ.श्याम गुप्त जी द्वारा ईशावास्योपनिषद् का भावानुवाद मानव समाज के अशान्त सागर को मथने का कार्य करती हैं। वस्तुतः ईशावास्योपनिषद् सहित सभी उपनिषदें धर्म-दर्शन और अध्यात्म की गूढ़ रहस्यात्मक अभिव्यक्तियाँ है जो देश-काल की सीमा से परे सनातन सत्य को उद्घाटित करती है। ये मानव मन के उस समय में उठने वाले संशयों का समाधान है जब मनुष्य वास्तविक सत्य को जानने के लिए उत्सुकता की सीमा को पार कर सत्य के लिए जिज्ञासु होता है। ये सम्पूर्ण मानव जाति के लिए कल्याणतम् पथ का निर्वचन करती हैं।
वाल्ट व्हिटमैन ने कहा था,
‘‘ये वस्तुतः सभी युगों और सभी देशों के लोगों के विचार हैं, केवल मेरे नहीं है। ये जितने मेरे है ये उतने ही आपके नहीं हैं तो ये लगभग व्यर्थ हैं।’’
डॉ. योगेश
अध्यक्ष
’नवसृजन’
साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था राजाजीपुरम,लखनऊ
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