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शनिवार, 30 मई 2020

डा श्याम गुप्त के अभिनन्दन ग्रन्थ 'अमृत कलश --षष्ठ पुष्प-- डा श्याम गुप्त की विविध विधाओं व विषयों सम्बंधित उदाहारण स्वरुप कुछ रचनाएँ –४.गद्य रचनाएँ-

                                            कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित


डा श्याम गुप्त के अभिनन्दन ग्रन्थ 'अमृत कलश का लोकार्पण २२-०२-२०२० को हुआ |---तुरंत लौकडाउन के कारण कुछ विज्ञ लोगों तक नहीं पहुँच पा रही है अतः --यहाँ इसे क्रमिक पोस्टों में प्रस्तुत किया जाएगा | प्रस्तुत है --

 षष्ठ पुष्प--

     डा श्याम गुप्त की विविध विधाओं व विषयों सम्बंधित उदाहारण स्वरुप कुछ रचनाएँ –

१-पद्य रचनाएँ—तुकांत छंद, तुकांत कवितायेँ, गीत, नवगीत, अतुकांत कवितायें व गीत एवं अगीत रचनाएँ |
२. ब्रजभाषा की रचनाएँ --- छंद व गीत
३. उर्दू साहित्य की रचनाएँ—गज़ल, नज़्म, कते , रुबाई ,शेर आदि
४.गद्य रचनाएँ--- कहानी , आलेख, समीक्षा, भूमिका, उपन्यास, श्याम स्मृतियाँ से
५. अंग्रेज़ी साहित्य की रचनाएँ --- आलेख व कवितायें 
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४.गद्य रचनाएँ--- कहानी , आलेख, समीक्षा, भूमिका, उपन्यास, श्याम स्मृतियाँ से

                                    ४.  गद्य रचनाएँ-----

कहानी ---  अफसर....
          मैं रेस्ट हाउस के बरांडे में कुर्सी पर बैठा हुआ हूँ सामने आम के पेड़ के नीचे बच्चे पत्थर मार- मार कर आम तोड़ रहे हैं कुछ पेड़ पर चढ़े हुए हैं बाहर बर्षा की हल्की-हल्की बूँदें (फुहारें) गिर रहीं हें सामने पहाडी पर कुछ बादल रेंगते हुए जारहे हैंकुछ साधनारत योगी की भांति जमे हुए हैं निरंतर बहती हुई पर्वतीय नदी की धारा 'चरैवेति-चरेवैतिका सन्देश देती हुई प्रतीत होती है बच्चों के शोर में मैं मानो अतीत में खोजाता हूँ गाँव में व्यतीत छुट्टियांगाँव के संगी साथी.... बर्षा के जल से भरे हुए गाँव के तालाव पर कीचड में घूमते हुए;  मेढ़कों को पकड़ते हुएघुटनों-घुटनों जल में दौड़ते हुएमूसलाधार बर्षा के पानी में ठिठुर-ठिठुर कर नहाते हुएएक-एक करके सभी चित्र मेरी आँखों के सामने तैरने लगते हैं सामने अभी-अभी पेड़ से टूटकर एक पका आम गिरा हैबच्चों की अभी उस पर निगाह नहीं गयी है बड़ी तीब्र इच्छा होती है उठाकर चूसने कीअचानक ही लगता है जैसे मैं बहुत हल्का होगया हूँ और बहुत छोटा दौड़कर आम उठा लेता हूँ   वाह! क्या मिठास है| मैं पत्थर फेंक-फेंक कर आम गिराने लगता हूँ कच्चे-पक्केमीठे-खट्टे अब पद पर चढ कर आम तोड़ने लगता हूँ पानी कुछ तेज बरसने लगा है, मैं कच्ची पगडंडियों पर नंगे पाँव दौड़ा चला जारहा हूँकीचड भरे रास्ते पर पानी और तेज बरसने लगता है, बरसाती नदी अब अजगर के भांति फेन उगलती हुई फुफकारने लगी है, पानी अब मूसलाधार बरसने लगा है, सारी घाटी बादलों की गडगडाहट से भर जाती है और मैं बच्चों के झुण्ड में इधर-उधर दौड़ते हुए गारहा हूँ ---
            ""बरसो राम धडाके सेबुढ़िया मरे पडाके से ""
               साहब जी ! मोटर ट्राली तैयार है" अचानक ही बूटा राम की आवाज़ से मेरी तंद्रा टूट जाती है, सामने पेड़ से गिरा आम अब भी वहीं पडा हुआ है, बच्चे वैसे ही खेल रहे हैं,  मैं उठकर चल देता हूँ वरांडे से वाहर हल्की-हल्की फुहारों में,  सामने से दौलतराम व बूटाराम छाता लेकर दौड़ते हुए आते हैं, ' साहब जी ऐसे तो आप भीग जाएँगे और मैं गंभीरता ओढ़ कर बच्चों को... पेड़ को.. आम को व मौसम को हसरत भरी निगाह से देखता हुआ टूर पर चल देता हूँ |
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समीक्षा ...---डा श्याम गुप्त लिखित---
                  गुरु महात्म्य- एक अनुपम कृति
       दावानल संसार में दारुण दुःख अनंत |श्याम करे गुरु वन्दना, सब दुखों का अंत ||....
सुकवि श्री साहब दीन ‘दीन’ ने संसार-सागर पार करने हेतु, गोस्वामी तुलसीदास जी के अमर गुरुवंदन-, श्री गुरु पद नख मनि गन जोती, सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती” तथा वन्दौं गुरु पद कंज’..के अनुसरण में इस गुरु महात्म्य की रचना रूपी अनुपम विधि की खोज की है | गोस्वामी जी का अनुसरण करते हुए आपने ‘महाजनाः येन गतो स पन्थाः’ को चरितार्थ करते हुए प्रस्तुत कृति में अपने गुरु साहित्यभूषण, डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’ के महात्म्य की रचना करके एक स्तुत्य कार्य किया है जो आज के इस स्वार्थमय एवं विखंडित गुरु-शिष्य परम्परा के युग में महत कार्य ही कहा जायगा|
      प्रस्तुत कृति में कृतिकार ने डा रंगनाथ मिश्र सत्य के जन्म, जीवन, परिवार, व्यक्तित्व व कृतित्व, साहित्यिक सेवायें, रचनाएँ, उनके द्वारा स्थापित नवीन विधाएँ, साहित्य जगत में उनके अनुपम स्थान, अंतर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व के बारे में विस्तृत वर्णन पद्यमय विधा में किया गया है | रामचरितमानस के प्रारूपानुसार दोहे, चौपाई व छंदों के माध्यम से इस कृति की रचना इसे एक विशिष्ट कलात्मक पक्ष प्रदान करती है |
      माँ वाणी की वन्दना के उपरांत ‘वन्दहुं प्रथम गुरु के चरना..’छल पाखण्ड दंभ से न्यारे हैं, गुरु धन्य शिष्य जिन्हें प्यारे हैं’ एवं विश्व के प्रथम गुरु भगवान् शिव का उल्लेख उनके गुरु के प्रति भक्ति भाव एवं शास्त्र-ज्ञान को दर्शाता है | साहिब दीन जी अपने कथन..’कवि हुरदंगी कहेउ विचारी ‘ एवं कवि सरोज पुनि कहेउ बुझाई..’ के द्वारा अपने प्रेरक कवि सहयोगी सुभाष हुड़दंगी एवं गुरु के दर्शन व गुरु कथा के दृश्यमान कराने वाले कवि सरोज जी का स्मरण करना नहीं भूलते | 
         गुरुवर डा सत्य जी के महात्म्य का विस्तृत वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि –
“ऋतु बसंत सब भाँति सुहावन,जनमेउ रंगनाथ जगपावन”| ‘सत्य नाम उनकर विख्याता,हिन्दी के साहित्य विधाता|   
‘विधा अगीतकाव्य के ज्ञाता, जनक अगीत विश्व विख्याता |’ तथा ‘साहित्यभूषण पदवी धारा|’ से उनके पूर्ण कृतित्व का उल्लेख करते हैं| उनके उदार चरित्र, लोकप्रियता, समन्वयवादिता, गुणग्राहकता से उत्पन्न उनके समर्थकों, शिष्यों की लम्बी श्रृंखला का वर्णन करते हुए वे कहते हैं..’जहां जहाँ हिन्दी जग माहीं, गुरु के शिष्य तहां मिलि जाहीं |’
कविवर साहबदीन जी डा सत्य में सच्चे गुरु की छाया पाते हैं, जब वे कहते हैं --
‘..प्रतिभा को खोज खोज करते सृजन सत्य, रखते हैं ध्यान गुरु सबके सम्मान की|’ 
काव्य व साहित्य से डा सत्य के अप्रतिम जुड़ाव का जिक्र वे ‘अर्धांगिनि सम संगिनि कविता..’ से करते हैं|
     अपने घर का नाम ‘अगीतायन’ रख लेना, अनवरत चलने वाली प्रत्येक माह गोष्ठी, अपने जन्म दिवस को साहित्यकार-दिवस का रूप देना, उनके जीवन में ही मृत्यु की खबर उड़ना आदि विलक्षण घटनाओं का वर्णन भी कवि ने सुन्दरता से किया है |
     अगीत-विधा का महत्त्व ‘राष्ट्र समाज प्रगति की कविता, बहे अगीतावाद की सरिता|’ से रेखांकित हैं| आरती में ‘छल, पाखण्ड दंभ कछु नाहीं,जिनके नहिं लालच मन माहीं|’ से कवि डा रंगनाथ मिश्र सत्य के अनुपम साहित्यिक चरित्र व सुदृड़ता का वर्णन करता है जो आजकल साहित्य-जगत में कम ही देखने को मिलता है | इस प्रकार इस सुन्दर सार्थक व अनुपम कृति की रचना हेतु श्री साहब दीन’दीन बधाई के पात्र हैं | मैं कृति की सफलता की कामना करता हूँ | 

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  आलेख---
                          छंद का विस्तृत आकाश ....आकाश को छोटा न कर ....  
            
वे जो सिर्फ छंदोबद्ध कविता ही की बात करते हैंवस्तुतः छंदकविता, काव्य-कला व साहित्य का अर्थ ठीक प्रकार से नहीं जानते-समझते एवं संकुचित अर्थ व विचार धारा के पोषक हैं। वे केवल तुकांत-कविता को ही छंदोबद्ध कविता कहते हैं। कुछ तो केवल वार्णिक छंदों -कवित्त, सवैयाकुण्डली आदि -को ही छंद समझते हैं। छंद क्या है कविता क्या है ?
                       
वस्तुतः कविताकाव्य-कलागीत आदि नाम तो बाद मैं आए। आविर्भाव तो छंद -नाम ही हुआ है। छंद ही कविता का वास्तविक सर्व प्रथम नाम है। सृष्टि-महाकाव्य- में सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया में कवि कहता है--
   
चतुर्मुख के चार मुखों से ,
   
ऋक,यजु ,साम ,अथर्व वेद सब ;
  
छंद शास्त्र का हुआ अवतरण ,
   
विविध ज्ञान जगती मैं आया। "----श्रृष्टि खंड से।
             
वास्तव में प्रत्येक कविता ही छंद है। प्राचीन रीतियों के अनुसार आज भी विवाहोपरांत प्रथम दिवस पर दुल्हा-दुल्हिन को छंद -पकैया खेल खिलाया जाता है (कविता नहीं)। इसमें दौनों कविता मैं ही बातें करते हैं। इसके दो अर्थ हैं --
     १.कविता का असली नाम छंद है.,छंद ही कविता है।
     २ काव्य -कला जीवन के कितने करीब है । जो छंद बनाने मैं प्रवीणताज्ञान की कसौटी है वह संसार-चक्र में जाने के लिए उपयुक्त है । आगे आने वाला जीवन छंद की भांति अनुशासित परन्तु निर्बंध, लालित्यपूर्णविवेकपूर्णसहजसरलगतिमय व तुकांत-अतुकांत की तरह प्रत्येक आरोह-अवरोह को झेलने में समर्थ रहे।
          छंद का अर्थ है अनुशासन । स्वानुशासन में बंधीलयबद्ध रचना, चाहे तुकांत हो या अतुकांत। वैदिक छंद व मन्त्र सभी अतुकांत हैं परन्तु लयानुशासन बद्ध--हिन्दी में अगीत ने यही स्वीकारा है । जब कहा जाता है कि "स्वच्छंदचारी न शिवो न विष्णु यो जानाति स पंडितः"----अर्थात शिव व विष्णु स्व छंदअर्थात स्वानुशासन के व्यवहारी हैंकिसी जोड़-तोड़ के अनुशासन के नहीं ..स्वलय. स्वभाव,आत्मानुवत,आत्मभूतसहज भाव वाला। अगीत कविता भाव यही है । 
                 
अतः छंद ही कविता हैहर कविता छंद है -तुकांतअतुकांतगीत-अगीत सभी । छंद का अपना विस्तृत आकाश है। आकाश को छोटा न कर।

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श्याम स्मृतियां- ---

१.नेतृत्व का अनुशासन.... 
         प्रत्येक नेतृत्व का एक स्वयं का भाव-अनुशासन होता है जो उसकी स्वयं-निजता को भी मर्यादित रखता है | परन्तु यदि नेतृत्व समय सीमा में अपना उद्देश्य प्राप्त करने में सफल नहीं होता तो लंबे समय में एक समय ऐसा
आता है कि नेतृत्व के पीछे चलने बालों को नेतृत्व एक बोझ लगने लगता है और वे उससे मुक्ति पाने हेतु प्रयत्न करने लगते हैं | विशेषकर जब बाहरी संकट और आवश्यकताएं नहीं रहतीं तो व्यक्तियों की रजोगुण प्रेरित भोग लालसा प्रबल होने लगती है , और नेतृत्व को अनुशीलन करने वालों को संभालना दुष्कर होजाता है और वे बिखरने लगते हैं  
      अतः प्रत्येक नेतृत्व को समय समय पर अपने परिवार,अपनी प्रजा, अपने अनुयाइयों की भावनाएं, विचार व सामयिक आवश्यकताएं, अपेक्षाएं व इच्छाओं
का ज्ञान प्राप्त करते रहना चाहिए एवं यथाशक्ति उनका मान या दमन एवं यथातथ्य संतुष्टि या पूर्ति करते रहना चाहिए | अन्यथा विद्रोह की संभावना बनी रहती है |

 २.यह भारत देश है मेरा ------
         यह भारतीय धरती  वातावरण का ही प्रभाव है कि मुग़ल जो एक अनगढ़अर्ध-सभ्य,  बर्बर घुडसवार आक्रमणकारियों की भांति यहाँ आये थे वे सभ्यशालीनविलासप्रियखिलंदड़ेसुसंस्कृत लखनवी -नजाकत वाले लखनऊआ नवाब बन गए | अक्खड-असभ्य जहाजी ,सदा खड़े -खड़े , भागने को तैयारतम्बुओं में खाने -रहने वाले अँगरेज़ ...महलोंसोफोंकुर्सियों को पहचानने लगे |
               यह वह देश है जहां प्रेमसौंदर्यनजाकतशालीनता... इसकी  संस्कृतिमें रचा-बसा है,   इसके जल  में घुला हैवायु में मिला है और खेतों में दानों के साथ बोया हुआ रहता है |  प्रेम-प्रीति यहाँ की श्वांस  है और यहाँ के हर श्वांस प्रेम है |
             यह पुरुरवा काकृष्ण कारांझे काशाहजहां का और  ताजमहल का देश है.....|
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----क्रमश --५,अंग्रेज़ी साहित्य की रचनाएँ --- आलेख व कवितायें 












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