कविता की भाव-गुणवत्ता के लिए समर्पित
डा श्याम गुप्त के अभिनन्दन ग्रन्थ 'अमृत कलश का लोकार्पण २२-०२-२०२० को हुआ |---तुरंत लौकडाउन के कारण कुछ विज्ञ लोगों तक नहीं पहुँच पा रही है अतः --यहाँ इसे क्रमिक पोस्टों में प्रस्तुत किया जाएगा | प्रस्तुत है - -पंचम पुष्प ---आलेख-८ .--
डा श्याम गुप्त के अभिनन्दन ग्रन्थ 'अमृत कलश का लोकार्पण २२-०२-२०२० को हुआ |---तुरंत लौकडाउन के कारण कुछ विज्ञ लोगों तक नहीं पहुँच पा रही है अतः --यहाँ इसे क्रमिक पोस्टों में प्रस्तुत किया जाएगा | प्रस्तुत है - -पंचम पुष्प ---आलेख-८ .--
डा
श्याम गुप्त के काव्य का शिल्पपरक अनुशीलन एवं उनके महाकाव्यों की विशेषता ...
---- सूर्य प्रसाद मिश्र ‘हरिजन’
काव्य का शिल्प अर्थात कलापक्ष में शब्द
सौन्दर्य (रस छंद अलंकर योजना) भाव सौन्दर्य (माधुर्य, ओज, प्रसाद आदि काव्य–गुण)
द्वारा अर्थ सौन्दर्य की उत्पत्ति(अभिधा, लक्षणा,व्यंजना ) का उपयोग करके अर्थ
प्रतीति द्वारा विषय के भाव व विषय बोध को पाठक के मन में रंजित व अभिनिहित व
स्पष्ट रूप से संप्रेषित किया जाता है | अतः काव्य के कलापक्ष के अध्ययन हेतु
मूलतः जो तत्व समाहित होते हैं वे हैं—छंद, भाषा, शैली, शब्द-चयन, कहावतें व
मुहावरों का प्रयोग, प्रतीक व बिंब, रस एवं अलंकार योजना ..| डा श्यामगुप्त के
काव्य में काव्य के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। वे प्रबन्धकार तो हैं ही,ग़ज़लकार
और गीतकार भी हैं; छंदोबद्ध मुक्तक काव्य में सिद्धहस्त हैं तो छन्दमुक्त
काव्य एवं गद्य काव्य में भी
उतना ही अधिकार रखते हैं।
डा श्याम गुप्त की शैली मूलतः उद्बोधन, देशप्रेम, उपदेशात्मक, गवेषणात्मक व दार्शनिक है जो यथा-विषयानुसार होती है| श्रृंगार की एवं ललित रचनाओं में लालित्यपूर्ण अलंकारयुक्त शैली में दोहे, पद, सवैये, कुण्डलिया,कवित्त आदि शास्त्रीय मुक्तक छंद उन्होंने लिखे हैं| भावात्मक एवं व्यंगात्मक शैली का भी उन्होंने प्रयोग किया है | स्पष्ट भाव-सम्प्रेषण हेतु मूलतः वे अभिधात्मक कथ्य-शैली का प्रयोग करते हैं| परन्तु आवश्यकतानुसार लक्षणा व व्यंजना का भी समुचित प्रयोग करते हैं |
डा श्याम गुप्त की शैली मूलतः उद्बोधन, देशप्रेम, उपदेशात्मक, गवेषणात्मक व दार्शनिक है जो यथा-विषयानुसार होती है| श्रृंगार की एवं ललित रचनाओं में लालित्यपूर्ण अलंकारयुक्त शैली में दोहे, पद, सवैये, कुण्डलिया,कवित्त आदि शास्त्रीय मुक्तक छंद उन्होंने लिखे हैं| भावात्मक एवं व्यंगात्मक शैली का भी उन्होंने प्रयोग किया है | स्पष्ट भाव-सम्प्रेषण हेतु मूलतः वे अभिधात्मक कथ्य-शैली का प्रयोग करते हैं| परन्तु आवश्यकतानुसार लक्षणा व व्यंजना का भी समुचित प्रयोग करते हैं |
उनके काव्य में कल्पना की अनूठी उड़ान, भाषा की नैसर्गिक छटा तथा भावनाओं की
सुकुमारता अनायास
ही श्री जयशंकर प्रसाद की उत्कृष्ट शैली का स्मरण दिलाती है डा श्यामगुप्त के काव्य में पद्य (तुकांत)एवं गद्य (अतुकांत )दोनों
ही काव्य शैलियों का उपयोग किया गया है जो
कृतियों व रचनाओं के अनुसार है |
डा गुप्त के काव्य में मूलतः अभिधात्मक, वर्णानात्मक
शैली का प्रयोग किया गया है जो सहज ही संप्रेष्य है--
‘कविता वह है जो रहे सुन्दर सरल सुबोध
जनमानस
को कर सके, हर्षित प्रखर प्रबोध |’
-- सत्यं शिवम सुन्दरम ( काव्य निर्झरिणी)
गूढ़ भाव को सहज रूप में प्रकट करने हेतु
लक्षणात्मक एवं दूरस्थ या कूट भाव अथवा अन्यार्थ भाव हेतु व्यंजनात्मक शैली का भी
यथास्थान प्रयोग है |
प्रेमकाव्य में प्रसाद गुण युक्त अभिधात्मक
शैली है | प्रेम व श्रृंगार विषयक काव्य होने से माधुर्य गुण व लालित्य
वर्णन से लक्षणात्मक व व्यंजनात्मक शैली का भी प्रयोग है| देशभक्ति व
राष्ट्र प्रेम के गीतों में ओज गुण का भी समावेश है | विवरणात्मक कथ्य
शैली के साथ-साथ अध्यात्मिक रचनाओं में उपदेशात्मक एवं गवेषणात्मक कथ्य का भी
प्रयोग मिलता है|
‘शाम
सिंदूरी हवाओं / में महावर घोलती हैं |’
‘भोली सरल गाँव की गोरी / प्रेम मगन राधा बन जाए |’---प्रेम काव्य से
गूढ़ विषय की सृष्टि महाकाव्य की शैली
अध्यात्मिक विषय होने से कथ्य अधिकाँश तार्किक एवं विवरणात्मक है | व्यंजना शैली
का एक उदहारण प्रस्तुत है-
“प्रतिदिन एक ही स्वर्ण अंड से, / उसका
लालच नहीं सिमटता,
चीर कलेजा, स्वर्ण खज़ाना, / पाना चाहे एक
साथ ही ||”
----सर्ग-२ उपसर्ग..(सृष्टि महाकाव्य )
अतुकांत
काव्य शैली को शास्त्रज्ञों द्वारा नाटकीय शैली कहा गया है
जिसमें गति, ताल व प्रवाह मूलतत्व है| काव्यदूत, काव्यमुक्तामृत, सृष्टि व
शूर्पणखा काव्यों में अतुकांत काव्य का यह तत्व सर्वत्र विद्यमान है |
ब्रजबांसुरी में मूलतः पिंगल (ललित
शब्दचयन व कथ्य )एवं औक्तिक (उक्ति, वर्णन व उक्ति वैचित्र्य, चारुता) ब्रजशैली का
प्रयोग हुआ है| उक्ति-वैचित्र्य शैली भी खूब दृष्टव्य है | प्रसाद व माधुर्य गुण
युक्त एक
ललित रचनांश प्रस्तुत है -- “होय कुसुम सर घायल जियरा / अंग अंग रस भरि
लाये |” /सखी री नव-बसंत आये |
डा.श्याम गुप्त की भाषा व शब्द चयन ---–भाषा
सहज, सरल सुगम
व सुबोध है जो मूलतः सामान्य बोलचाल की खडीबोली हिन्दी है, वे
ब्रजभाषा व अंग्रेजी में भी रचनारत हैं| भाषा- काल व विषयवस्तु के अनुसार बदलती है
| गद्य रचनाओं में मूलतः आप खडी-बोली,शुद्ध हिन्दी,संस्कृतनिष्ठ
हिन्दी एवं कहीं कही सामान्य उर्दू मिश्रित हिन्दुस्तानी का प्रयोग करते हैं,अतुकांत
व तुकांत कविताओं में शुद्ध परिष्कृत प्रांजल परिमार्जित हिन्दी
व सामान्य हिन्दुस्तानी तथा ललित काव्य व छंदों में ब्रजभाषा व
संस्कृतनिष्ठ शुद्ध हिन्दी का | शायरी, ग़ज़लों आदि में उर्दू-मिश्रित
हिन्दुस्तानी, शुद्ध हिन्दी या ब्रजभाषा मिश्रित हिन्दी का प्रयोग करते हैं| वैज्ञानिक,
दार्शनिक, वैदिक साहित्य की गंभीर रचनाओं में संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का
प्रयोग है | आपकी भाषा में सप्रयास तत्सम शब्दों की दौड़ नहीं है | जनसामान्य की लोकभाषा है जो शाब्दिक बनावट से
मुक्त है | देशज, तत्सम, उर्दू शब्दों का यथास्थान चयन किया गया
है एवं गंभीर दार्शनिक व अध्यात्मिक विषयों व गवेष्णात्मक शैली हेतु संस्कृतनिष्ठ
शब्दों का भी प्रयोग है | कहीं कहीं अंग्रेज़ी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है | यथा...
शुद्ध सरल हिन्दी देखें-
‘झरोखे
प्रगति के जहां पर / कर्म की कहते परिभाषा |’ ---वही सबकुछ (काव्यदूत)
“प्रकृति
प्रदत्त प्रशांति जहां / मैं ऐसा निर्जन
वन हूँ |’...में संस्कृतिनिष्ठ हिन्दी की
छटा है तथा संस्कृतनिष्ठ
भाषा की एक बानगी देखिये -“वो अस्नाविर और अकायम,शुद्धंपापम|कविर्मनीषी
और स्वयंभू,पापमविद्धं |-कस्मै देवाम (काव्य मुक्तामृत)
सरल सामान्य बोलचाल की भाषा भी है | एक
उदाहरण --- सृष्टि महाकाव्य से देखें –
“लोभ मोह वश बन खलनायक / समय समय पर निज करनी से /जो कर
देते व्यथित धरा को |”
ब्रजभाषा मिश्रित लोकभाषा में ललित
भाषा का प्रयोग देखिये ---
“राधाजी के अंग कौं, परसें पुष्प लजायं,
भाव भरे नत-नमन करि,सादर पग बिछि
जायं|” --पुष्प
केलि १८
निम्न गज़ल रचना में उर्दू मिश्रित
हिन्दी का उदाहरण है|-----
श्याम’ तू एसी खता अब तो हर बार न कर ,
प्यार को समझे न वो इश्के इकरार न कर ||...
एवं अंग्रेज़ी
शब्दों का प्रयोग काव्य-निर्झरिणी
में देखें ..
इंटरनेट की माया ने सबको भरमाया,
दुनियाभर
में इन्फोटेक का जाल बिछाया |
डा श्यामगुप्त की छंद योजना
--- “काव्य की लयात्मक, नियमित और अर्थपूर्ण शब्द-योजना छन्द
है | काव्य की प्रत्येक विधा में सिद्धहस्त डा श्यामगुप्त
के काव्य में तुकांत गेय छंद,सनातन वार्णिक व मात्रिक मुक्तक छंद,गीत,लोकगीत एवं
अतुकांत मुक्तछंद तथा अगीत-छंद सभी का समयानुकूल प्रयोग हुआ है |
तुकांत कविताओं में अधिकांशतः मात्रिक छंदों
का प्रयोग है जिनमें सममात्रिक, अर्ध-सममात्रिक व विषम मात्रिक, ललित तुकांत(
चारों चरण सम-तुकांत), युग्म
तुकांत,( प्रथम-तृतीय व द्वितीय-चतुर्थ सम तुकांत ) भिन्न
तुकांत सभी का प्रयोग किया गया है| गीतों में मूल चतुष्पदीय छंदों का प्रयोग है जो
विषम-मात्रिक मुक्त-छंद हैं| अन्य शास्त्रीय छंदों का भी प्रयोग हुआ है| लोकगीतों
की अपनी ही छंदात्मकता व धुन है |
एक सममात्रिक १२-१२ मात्राओं के दिक्पाल
छंद का उदाहरण प्रस्तुत है---
“अपने
ही ख्यालों का / मुझे विचार नहीं है |
उनमें
भी लगता है, / मुझको सार नहीं है | --स्मृति
रेखाएं –काव्यदूत से
अर्ध सम-मात्रिक छंद –दोहा, दोहरा, रुचिरा
आदि छंदों का प्रयोग डा श्यामगुप्त ने किया है | रुचिरा छंद – (१६-१४ =३०
प्रति चरण, समचरण में गुरु-गुरु तुकांत ) का उदाहरण प्रस्तुत है –
“घूँट
में कडुवाहट भरती है, सीने में उठती ज्वाला |
पीने
वाला क्यों पीता है, समझ न सकी स्वयं हाला ||” ---श्याम–मधुशाला (काव्य निर्झरिणी )
.
विविध मात्रिक गीत, तुकांत छंद- दोहे, सोरठा, कुण्डली छंद, मनहरण व रूप
घनाक्षरी, सवैया, अन्य वर्णानात्मक छंद व ललित छंदों एवं अतुकांत छंद, मुक्तछंद,
अगीत छंद सभी का प्रयोग प्रेमकाव्य महाकाव्य में मिलता
है | प्रत्येक सर्ग के लिए भिन्न-भिन्न छंदों-गीतों का प्रयोग किया गया है | १६-१६
मात्राओं के सममात्रिक, चरणान्त गुरु- सायक-छंद का उदाहरण प्रस्तुत
है---
“जले प्रेम की ज्योति ह्रदय में, हे
माँ! तेरी कृपा दृष्टि हो |
ऐसी भक्ति भरो इस उर में, प्रेममयी यह
सकल सृष्टि हो | “ – सुमनांजलि
१/२ –प्रेम काव्य
डा श्यामगुप्त ने सदैव
नूतन प्रयोग किये हैं तथा काव्यरचना के विविध
रूपों द्वारा वे सच्चे अर्थों में
सदा प्रगति के पथ पर अग्रसर रहते हैं | आपके द्वारा तुकांत छंद विधा में नए सृजित
छः पंक्तियों के सवैया छंद -‘श्याम सवैया छंद’ (छः पंक्तियाँ, २२ से २६ तक
वर्ण ) का भी इस कृति में प्रयोग किया है -
“प्रीति
मिले सुख रीति मिले धन प्रीति मिले, सब माया अजानी।
कर्म की, धर्म की, भक्ति की सिद्धि, प्रसिद्धि मिले सब नीति सुजानी ।
ज्ञान
की कर्म
की अर्थ की रीति, प्रतीति
सरस्वति-लक्ष्मी
कि जानी ।
ऋद्धि
मिली, सब
सिद्धि मिलीं, बहु भांति
मिली निधि वेद बखानी ।
सब आनन्द
प्रतीति मिली, जग प्रीति
मिली बहु भांति सुहानी ।
जीवन गति
सुफ़ल सुगीत बनी, मन जानी, जग ने पहचानी
||” - परमार्थ..
सर्ग-११/४ –प्रेमकाव्य ..
लालित्य युत अष्टपदी विविध घनाक्षरी छंद
,मनहरण कवित्त, –देव घनाक्षरी, अमात्रिक डमरू छंद एवं अमत्ता
छंद का प्रयोग किया गया है जो डा श्यामगुप्त के छंद शास्त्रीय कौशल का उदहारण है—
पवन बहन लग, सर सर सर सर |
जल
बरसत जस, झरत सरस रस |
---डमरू छंद –११/९ –ब्रजबांसुरी
ब्रजबांसुरी के प्रत्येक अध्याय,
जिसे भाव अरपन कहा गया है, पृथक-पृथक छंद-विधा में सृजित किया गया है | यह मूलतः
छंद–काव्य है जिसमें सभी प्रकार के छंदोबद्ध, छंदमुक्त, अतुकांत व अगीत छंद विधाओं
में रचनाओं को निबद्ध किया गया है | शास्त्रीय छंद- दोहा, बरवै, सवैया, घनाक्षरी,
कुण्डली छंद, छप्पय, मुक्तक, पद, मुक्तछंद, गीत, नवगीत, अगीत, प्रगीत, अतुकांत
छंद, अतुकांत गीत एवं लोकगीतों की छटा विभिन्न राग –रागिनियों में बिखरी हुई
है| इन गीतों व छंदों के प्रबंध विधान में
संस्कृत –काव्य का वैचित्र्य कौशल, चारुता एवं ब्रजभाषा के लालित्य की अजस्र धारा
सर्वत्र प्रवाहित है |
ध्रुवपद
की सरस धुनों पर आधारित पदों की छटा में अनुप्रास युक्त शब्दों में
श्रीकृष्ण के विविध नामों का मनोहारी वर्णन किया गया है ---
“
धरहु नित केतिक रूप गुपाल|
नाग
नथैया, नाच नचैया, नटवर, नन्द गुपाल |
मोहन,
मधुसूदन, मुरलीधर, मोर-मुकुट यदुपाल|
१६-१६ मात्राओं के चरणान्त लघु गुरु गुरु
अरिल्ल छंद में एक ब्रजभाषा लोकगीत देखिये....
“रिमझिम
रिमझिम पडत फुहारें, मुरिला पपीहा पीउ पुकारें |
चतुर
टिटहरी निशि रस घोरे, चकवा चकई चाँद निहारें |
आये सजना नाहिं हमार, बदरिया घिरि घिरि आवै | ---बदरिया घिरि ...३/५
मुक्त छंद, अतुकांत कविता आज भावाभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम
है और उसमें भी काव्य के मूलगुण लय, गति व प्रवाह होते हैं एवं रस-निष्पत्ति भी,
तभी वह पाठक को आकृष्ट अथवा मुग्ध करती है डा श्यामगुप्त अतुकांत शैली में
काव्य रचना की पृष्ठभूमि एवं प्रयोजन को ‘अपनी बात’ में स्पष्ट करते हुए
कहते है....” मेरे विचार से समस्या प्रधान व तार्किक विषयों को मुक्तछंद
रचनाओं में सुगमता से कहा जा सकता है जो जनसामान्य के लिए भी सुबोध होती हैं....|”
डा श्यामगुप्त की अतुकांत कवितायें कृति
काव्यदूत में भी संग्रहीत हैं, काव्यमुक्तामृत में सभी मुक्तछंद अतुकांत कवितायें
हैं अतुकांत कवितायें प्रेमकाव्य एवं ब्रजबांसुरी में भी संकलित हैं | सभी अतुकांत
छंदों के विधान
में
खरी उतरती हैं तथा सहज लय, गति व प्रवाह से युक्त सौन्दर्यमय हैं | छंदमुक्त कविता नामक रचना में वे
स्वयं ही कहते हैं---
“श्रुति संहिता सामगान व नज्में / अप्रतिम
अमर ,
गेयता लिए हुए भी / छंद मुक्त हैं |” ------काव्यमुक्तामृत
अतुकांत
काव्य के छंदीय सौन्दर्य की छटा प्रस्तुत हैं—
“कमरे
की छतों से दीवारों से / चारों ओर के खामोश नजारों से – / उभरती है,
अहसासों
के बीच से उतरती है,/ एक तस्वीर, / तुम्हारी तस्वीर |” ---काव्यदूत
ब्रजभाषा में लय सौन्दर्य व प्रवाह युत अतुकांत
छंद का एक उदाहरण देखें ---
“म्हारे
प्रगतिवादी सखा / याहि कहत रहत हैं;
जो
प्रगतिवाद की धार में ही / बहत रहत हैं |” --ब्रजबांसुरी
से ..
महाकाव्य सृष्टि व शूर्पणखा खंडकाव्य को डा
श्यामगुप्त ने अतुकांत कविता की सुस्थापित विधा ‘अगीत’
में लिखा है | अगीत
अतुकांत कविता की एक विधा है
जिसमें संक्षिप्तता को अपनाया गया है |
डा श्यामगुप्त ने अपने अभिनव प्रयोगों से
अगीत-विधा के कई नवीन छंदों का सृजन किया है, यथा नव-अगीत, त्रिपदा अगीत,
लयबद्ध अगीत, लयबद्ध षटपदी अगीत एवं त्रिपदा अगीत ग़ज़ल आदि |
इन महाकाव्यों में कवि ने अपने नवीन स्वरचित
अगीत छंद ‘लयबद्ध षटपदी अगीत छंद’ का
प्रयोग किया है| जो सम-मात्रिक
अतुकांत १६ मात्राओं का अगीत छंद है एवं अतुकांत होते हुए भी लयबद्ध होता है यथा---
“तभी प्रकृति माया या नारी, / करती है सम्मान
पुरुष का |
पालन पोषण औ धारण हित, / भोग्या भी वह बन जाती है
|
सब कुछ देती बनी धरित्री, / शक्ति नारि माँ साथी
पत्नी ||” ---शूर्पणखा
खंडकाव्य से
लक्षणा युक्त अगीतछंद, ब्रजभाषा में द्रौपदी की
एक पाती देखें ---
हे सहदेव ! /
मैं बंधन में हती / संस्कृति
सन्स्कार सुरुचि के परिधान /
कन्धा पै धारिकैं |अब स्वाधीन हूँ, / हंसी खुशी
वस्त्र उतारि कैं |“ ---
१०/५
त्रिपदा
अगीत ( तीन पंक्तियाँ 16 मात्राएँ प्रत्येक में )का अगीत-त्रयी से एक उदाहरण देखें –
क्यों पश्चिम अपनाया जाये,/ सूरज
उगता है पूरव में / पश्चिम में तो ढलना निश्चित -डा श्याम गुप्त
उर्दू काव्य विधा शायरी के मूल छंद शेर व
रुबाई एवं गीतिकाव्य नज़्म है | आज़ाद नज़्म अगीत-छंद की भाँति अतुकांत छंद हैं | पुस्तक
‘कुछ शायरी की बात होजाए’ में डा श्यामगुप्त ने गज़ल, नज़्म, रुबाई,
शेर व कतए आदि सभी का प्रयोग सफलता पूर्वक किया है | एक शेर प्रस्तुत है ---
राहे
शौक में कदम शौक से बढ़ा तो श्याम,
मंजिल
ढूंढेगी क्यों उनको जो चले ही नहीं |
तथा एक आज़ाद नज़्म प्रस्तुत है .......
खुशी
के लम्हे / बरसात की बूंदों की तरह,
ठंडक
तो देते हैं, पर- / पकड़ में नहीं आते |
डा
श्याम गुप्त के काव्य में रस -
डा श्याम गुप्त के काव्य में, सभी कृतियों
में विभिन्न प्रकार से सभी रसों का सुन्दर परिपाक हुआ है |मर्यादित श्रृगार का एक उदाहरण शूर्पणखा से देखें ---
“पुष्पों को चुनकर निज कर से, भूषण रघुबर ने बना
दिए|
स्फटिक शिला पर हो आसीन, सिय को पहनाये प्रीति
सहित |..”
---- श्रृंगार का एक और दृश्य प्रस्तुत है---
“गागर
के छलके पानी से / अर्धासिंचित पारदर्शी होती हुई कमीज़
और
कदमताल पर हिलते हुए / पीन पयोधर |” ----काव्यदूत से
--- नख शिख वर्णन देखिये----
“प्रकृति भी झुक झुक जाती है, छवि निरखि अतुल
सौन्दर्य राशि |
उन्नत उरोज कटि क्षीण देख मुनियों के ध्यान छूट
जाते |”
‘गति से इन पीन नितम्वों की, कामी पुरुषों का चित
डोले |’ ----शूर्पणखा से
-----विप्रलंभ
श्रृंगार के उद्धरण प्रस्तुत है---
‘जब
जब दूर चले जाते हो, तुम मन की नगरी से|
घायल मन तो सहारा सहरा भटक भटक गाता है |’ ---प्रेमकाव्य
इस
प्रकार डा shyam गुप्त की रचनाओं में वात्सल्य, वीर रस, रौद्र .हास्य, शांत रस,
लगभग सभी रसों का सुन्दर परिपाक हुआ हाउ
डा श्याम गुप्त की अलंकार योजना –डा
श्यामगुप्त के काव्य में अनुप्रास, रूपक,
उपमा , वक्रोक्ति, ध्वन्यात्मक, पुनरुक्ति आदि सभी प्रकार के शब्दालन्कार एवं
अर्थालंकारों का प्रयोग हुआ है, विशेषकर अनुप्रास अलंकार की छटाएं अद्भुत हैं | कुछ
उदाहरण प्रस्तुत हैं----
---
अनुप्रास- सुमति सुधा के सम, सुन्दर सरस शब्द,
सुरुचि सुधीर सुभ भाव जग
भरि देउ |------ब्रजबांसुरी
---मालोपमा
--प्रेम ही ईश्वर अलौकिक ,प्रेम लौकिक व्यंजना |
प्रेम ही मन की सुरीली-तान प्रभु अभ्यर्थना || ---प्रेमकाव्य
----श्लेष – सृष्टि ज्ञान
स्वर मिले श्याम को...(सृष्टि ज्ञान=ब्रह्माण्ड रचना का ज्ञान तथा सृष्टि-काव्य
रचना का ज्ञान)...
----पुनरुक्ति-
“ठहरा हुआ समाज /ठहरा हुआ इतिहास /ठहरा हुआ
व्यक्तित्व “ --काव्यमुक्तामृत
----मिश्रित अलंकार -जरिवौ का जरिवौ जरौ, देखि सुखी
संसार ,
जरिवौ जरिवौ दीप सौ, जरै जगत अंधियार|--पुनुरुक्ति,यमक,श्लेष,अनुप्रास,उपमा,रूपक..
डा श्यामगुप्त के काव्य में बिम्ब
विधान -डा श्यामगुप्त के काव्य में कथ्यों के चित्रांकन व
बिम्ब विधान की नैसर्गिक छटा सर्वत्र विकीर्णित है | अधिकांश तुकांत व अतुकांत सभी
रचनाओं में चित्रमयता व बिम्बों का सौन्दर्य दर्शनीय है | प्रकृति का एक बिम्ब
प्रस्तुत है –
“मेघ
गर्जन मानो मृदुहास , / कराता प्रलय का आभास | “
लुप्त
होगया सभी आकार / पडी जब धारा मूसलधार | “ ---जाने कौन –काव्यदूत
एक सुन्दर स्मृति-चित्र अपन-तुपन रचना
में दृष्टव्य है ---
“और
बाहों में बाहें डाले / फिर चल देते थे, / खेलने- / हम तुम, / अपन –तुपन |” –काव्यदूत से
सामाजिक सरोकार की रचनाओं में प्रायः
बिम्वों का भी अधिक प्रयोग होने की संभावना नहीं होती | काव्यमुक्तामृत में
प्रयुक्त कुछ बिम्व प्रस्तुत है---
‘वहीं, चंदू की झौंपडी में / पानी
उलीचते हुये छह छह बच्चे / भीगी रोटी को तरसते हैं ..|” ---मेरा देश
XX { वैज्ञानिक, गूढ़ प्रतीकात्मक एवं श्रुति-तथ्य
विषयों के साहित्य में विम्ब-विधान कठिनतम कार्य है ; कुछ प्रतीकात्मक विम्ब प्रस्तुत हैं जिसे काल्पनिक भी कहा जा
सकता है..
“ब्रह्मा धरकर रूप चतुर्मुख, / स्वर्ण कमल
पर हुआ अवतरित |”
“सरस्वती वीणा ध्वनि करती, / प्रकट हुई
स्वर-स्फुरणा से...”
--सृष्टि महाकाव्य से } XX
डा श्यामगुप्त की काव्य-कृतियों
में प्रतीक –डा
श्याम गुप्त की काव्य-कृतियों में विभिन्न प्रतीकों का आवश्यकतानुसार उपयोग किया
गया है | काव्यदूत में पत्नी को सूरज से प्रतीक एक नवीन प्रयोग है .. .
“तुम्हारे
बिना आज /मन का कोना कोना गीला है,
जैसे बरसात में सूरज के बगैर, /कपडे
गीले रह जाते हैं |” --तुम्हारे
बिना
डा. श्याम गुप्त के काव्य में उदाहरण,
मुहावरे, कहावतें, अंतर्कथाएँ, आदि- डा श्यामगुप्त की कृतियाँ विविध विषयक काव्य
ग्रन्थ हैं जो जीवन की विविधाओं से युक्त है अतः इनमें आवश्यकतानुसार विभिन्न
उद्धरण, कहावतें, मुहावरे, अंतर्कथाएँ आदि प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त हुए हैं---यथा
---न
हन्यते हन्यमाने शरीरे (-काव्यदूत )-गीता का प्रसिद्ध
कथन है,
--दाल भात के भाव (काव्यदूत
), खामोशी की डोर, जैसा खावें अन्न वैसा होवे मन आदि ...
पतिया की जात- ग्रामीण मेला, सामगान = वेदों
में वर्णित तत्कालीन गाये जाने वाले समूह गान एवं सामवेद के गेय मन्त्र ..
श्रुति तथ्य = वेदों, शास्त्रों में वर्णित तथ्य जिन्हें स्वयं-प्रमाण माना
जाता है
--कान्हा की प्रतिबिम्बी =
सांवली सलोनी, मसालों की बेटी, लाल मिर्च की सहेली चिमटा कलछी, चमचा गिलास पर /वे
रियाज थे पेल रहे (स्वर्ग), आदि |
ब्रजबांसुरी
में तो उक्ति वैचित्र्य शैली खूब दृष्टव्य है कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं----
भरि पिचकारी सखी पर, वे रँग बान चलायं,
लौटें नैनन बान भय, स्वयं सखा रंगि जायं “ ...एवं ..
टप टप टप टप अंग बहे स्वेद धार,
जिमि उतरि गिरि श्रंग जलधार आयी है |
बहे घाटी मध्य करि विविध प्रदेश पार, धार सरिता की जायकें सिन्धु में समाई है |”
बहे घाटी मध्य करि विविध प्रदेश पार, धार सरिता की जायकें सिन्धु में समाई है |”
डा श्यामगुप्त के महाकाव्यों की
विशेषता --
डा श्यामगुप्त के दो महाकाव्य व एक खंडकाव्य
यहाँ प्रस्तुत किये गए हैं|वे सभी अपने अपने शिल्प-लक्षणों पर सफल उतरते हैं| प्रेमकाव्य में महाकाव्य के सभी लक्षण उपस्थित हैं | इस
गीतिकाव्य में प्रेम जैसे अमूर्त भाव को नायकत्व प्रदान किया गया है | अतः अमूर्त भाव को नायकत्व देकर रचा गया यह प्रबंधकाव्य
अपने आप में विलक्षण, अनूठा एवं एकल महाकाव्य है | एक प्रकार से डा श्यामगुप्त का यह प्रेमकाव्य,
महाकवि जयशंकर प्रसाद के महाकाव्य कामायनी के अनुरूप ठहरता है जिसमें मानव मन जैसे
अमूर्त एवं उसके मनु रूप मूर्त पुरुष को नायकत्व प्रदान किया गया है |
प्रेमकाव्य एक जीवनकाव्य है जिसमें मानव जीवन के समस्त रूपों में स्थित प्रेम के
विविध आलंबनों का सांगोपांग वर्णन व विस्तृत तत्व व्याख्या प्रस्तुत है | आठ से
अधिक एकादश सर्ग, प्रत्येक सर्ग में छंद परिवर्तन भी महाकाव्य का गुण है जो
इस काव्य में उपस्थित है | श्रृंगार रस की प्रधानता सहित शांत एवं अन्य रसों का
परिपाक, प्राकृतिक दृश्यों के स्वाभाविक दृश्य व विम्ब भी समुचित रूप से उपलब्ध हैं| प्रारम्भ में मंगलाचरण
एवं समष्टि प्रेम की कवितायें मानवधर्म तथा विश्वबंधुत्व स्थित मानव मात्र के
सुख-शान्ति के सन्देश एवं भक्ति व अध्यात्म के सर्गों में जीवन धर्म, वास्तविक
सुख-शांति,परमार्थ, मोक्ष आदि की भारतीय संस्कृति व जीवन दृष्टि की स्थापना,
रचनाकार के एक महत उद्देश्य को स्थापित करती है जो महाकाव्य का मूल
उद्देश्य होता है | अतः कहा जा सकता है कि महाकाव्य के विविध लक्षणों से
परिपूर्ण प्रेमकाव्य एक महाकाव्य है |
प्रेमकाव्य
महाकाव्य में पात्र विहीन सृजन का एक नवीन मापदंड स्थापित किया गया है | अमूर्त
भाव को नायकत्व देकर रचा गया यह प्रबंध-काव्य अपने आप में विलक्षण, अनूठा एवं एकल
ही है | आन्ध्र प्रदेश, हैदराबाद के
सुविख्यात पत्रकार साहित्यकार दिवाकर पांडे के अनुसार”शायद भविष्य में इस
कृति के आधार पर ही इस प्रकार के मापदंड स्थापित किये जायं |”
सृष्टि महाकाव्य
-सृष्टि सृजन की विषय वस्तु पर आधारित एकादश सर्गों में वर्गीकृत महाकाव्य है कृति
का पूर्ण शीर्षक –‘सृष्टि-ईशत इच्छा या बिगबेंग, एक अनुत्तरित-उत्तर ‘है
| यह वैज्ञानिक,
आध्यात्मिक, दार्शनिक एवं सृष्टि सृजन जैसे गूढ़तम विषय पर रचित प्रथम महाकाव्य है
सृष्टि महाकाव्य में नायक ब्रह्म है, ईश्वर है, वही पुरुष है,
पुरुषोत्तम है, जिससे बढकर देवता व धीरोद्दात्त एवं पौराणिक-एतिहासिक और कौन हो
सकता है | प्रारम्भ में मंगलाचरण भी
किया गया है जिसमें नवीनता प्रदर्शित करते हुए १२ वन्दनाएँ की गयीं है जिसमें
दुष्टजन वन्दना भी शामिल है |
सर्गों की संख्या एकादश है | प्रत्येक सर्ग
के अंत में आने वाले सर्ग के विषय-भाव का यथेष्ट संकेत दिया गया है | उदाहरण
स्वरुप -चतुर्थ सर्ग संकल्प खंड के अंतिम छंद में पंचम सर्ग, अशांति खंड का संकेत
दिया गया है---
“सक्रिय कणों से बनी भूमिका, /सृष्टि कणों के उत्पादन की, /महाकाश की उस
अशांति में ||’
सम्पूर्ण महाकाव्य में एक विशिष्ट छंद
का प्रयोग किया गया है जो अगीत कविता विधा का स्वयं डा श्याम गुप्त द्वारा
नव-सृजित छंद ‘लयबद्ध षटपदी अगीत छंद’ है | यह प्रत्येक पंक्ति में सोलह मात्रा का छः
पंक्तियों वाला छंद है | अतः शिल्पपरक रूप
से सृष्टि महाकाव्य, महाकाव्य के मानकों पर पूरा उतरता है |
इसी प्रकार शूर्पणखा
काव्य में काव्य-कौशल,प्रबंध-पटुता के साथ प्रबंधकाव्य-खंडकाव्य
के सभी लक्षणों का पालन किया गया है | -मंगलाचरण, नायक –जो यहाँ एक सुप्रसिद्ध
खलनायिका को नायकत्व दिया गया है जिसके
कारण लंकाकांड हुआ, उसके जीवन की कुछ प्रमुख घटनाओं का विषद वर्णन है | प्राकृतिक
वर्णन की सुरम्यता, श्रृंगार, शांत व अन्य रसों का परिपाक, नौ सर्ग एवं सर्ग के
अंत में अगले सर्ग का संकेत | यथा प्रथम सर्ग के अंतिम छंद में कथ्य ---‘राक्षस
यहाँ तक नहीं आते,आगे तो जाना ही होगा’ ... तथा सर्वत्र न्याय नीति की
स्थापना, सदाचरण व विश्व-कल्याण की भावना जैसा महत उद्देश्य .... कृति को सफल खंडकाव्य
प्रमाणित करता है |
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